12 मई 2013

राजनैतिक विभ्रम के दौर में विश्लेषण, अध्ययन, आकलन की आवश्यकता



कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद मीडिया के द्वारा, चाहे वह प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या फिर सोशल मीडिया, सभी में भाजपा-कांग्रेस, मोदी-राहुल, हार-जीत आदि के समीकरणों पर चर्चा-बहस होने लगी है. इस बहस के परिदृश्य में आगामी लोकसभा चुनाव ही है. तमाम बहस, चर्चाओं में ये दर्शाया जा रहा है कि कहीं न कहीं मोदी कमजोर पड़ गए हैं, भाजपा का भ्रष्टाचार का मुद्दा जनता के बीच प्रभावी नहीं रहा है, राहुल जनता के बीच सशक्त होकर उभरे हैं, कांग्रेस की स्वीकार्यता जनता के बीच बढ़ी है. जो लोग भी राजनीति को सिर्फ शौकिया तौर पर ही समझने का प्रयास करते हैं या फिर राजनैतिक विश्लेषण करने में अपने पूर्वाग्रहों का सहारा लेते हैं उनके लिए किसी भी चुनावी परिणाम का सही से आकलन कर पाना आसान नहीं होता है. सम्बंधित चुनावी आकलन में उनका पूर्वाग्रह वास्तविकता पर हावी हो जाता है और अधिकतर ऐसे आकलन खुशफहमी के अलावा और कुछ नहीं होते. 

हमारे देश का राजनैतिक ढांचा जिस तरह का है, राजनीति का स्वरूप जिस तरह का है, मतदाताओं मानसिकता जिस तरह से मुद्दों-जाति-धर्म-क्षेत्रीयता के आधार पर बनती-बिगडती हों वहां की राजनीतिक हलचल का, चुनावी गतिविधि का आकलन कर पाना सहज काम नहीं होता है. इसके बाद भी यदि साधारण रूप में समझा जाए तो चुनावों के समय में राजनीति कुछ निश्चित बिन्दुओं के आसपास केन्द्रित होकर रह जाती है और उसी के अनुसार मतदाताओं का अपना व्यवहार बनने-बिगड़ने लगता है. इन बिन्दुओं में स्थानीय मुद्दे, क्षेत्रीय मुद्दे, राष्ट्रीय मुद्दे तो अपनी भूमिका निभाते ही निभाते हैं चुनाव विधानसभा का है अथवा लोकसभा का, सम्बंधित क्षेत्र के प्रत्याशियों की अपनी जन-स्वीकार्यता क्या है, किसी भी राजनैतिक दल की गतिविधियाँ और उनके नेताओं का चाल-चलन, सम्बंधित क्षेत्र/राज्य में राजनैतिक दलों के गठबंधन की स्थिति आदि को शामिल किया जा सकता है. इनके अलावा कुछ और भी बिंदु जाति, धर्म, क्षेत्र, व्यक्ति आदि को माना जा सकता है, इन सबके सम्मिलित स्वरूप  के बाद ही मतदाता किसी भी दल की, प्रत्याशी की, मुद्दे की स्थिति को अर्श पर अथवा फर्श पर पहुँचाने का काम करते हैं.

कर्नाटक विधानसभा चुनावों का आकलन करने के लिए इन चुनावों को किसी भी रूप में लोकसभा चुनावों की रिहर्सल अथवा सेमीफाइनल जैसा नहीं समझना चाहिए. विधानसभा चुनावों में मतदाता के सामने प्रदेश प्रमुखता से खड़ा दीखता है. उसके लिए मतदान करते समय सम्बंधित राज्य में राजनैतिक दलों की स्थिति, उसके क्रियाकलाप, प्रत्याशियों की अपनी व्यक्तिगत प्रस्थिति प्रमुख होती है. कर्नाटक चुनावों में वहां के मतदाताओं के लिए न तो मोदी प्रमुखता में रहे होंगे और न ही राहुल. जिस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर घनघोर भ्रष्टाचार के बाद भी वहां के मतदाताओं द्वारा कांग्रेस को पूर्णबहुमत प्रदान किया है उससे साफ़ जाहिर होता है कि मतदाताओं ने प्रदेश स्तर पर भाजपा-कांग्रेस को तौलकर सत्ता प्रदान की है. भाजपा ने अपने भ्रष्ट मंत्री को बाहर का रास्ता दिखाकर भले ही कर्नाटक की जनता में स्वच्छ छवि का सन्देश देने का प्रयास किया था किन्तु राज्य में भाजपा के अन्य मंत्रियों-विधायकों के कारनामों ने उस सन्देश को जनता के बीच स्वीकार्य नहीं बनाया. कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणामों को देखकर भले ही ये कहा जाये कि वहां की जनता ने भाजपा के प्रादेशिक भ्रष्टाचार के ऊपर कांग्रेस के राष्ट्रीय भ्रष्टाचार को स्वीकार कर लिया है किन्तु इसके पूर्व उस राज्य में कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ अन्य प्रभावी दलों का तुलनात्मक अध्ययन करना होगा; इन दलों के प्रत्याशियों की प्रस्थिति, उनके कार्यों का भी आकलन करना होगा.

इस स्थिति को जाने-पहचाने बिना हार-जीत का आकलन पूरी गंभीरता से रखना कहीं न कहीं वास्तविकता से मुंह मोड़ना ही होगा. जो लोग सिर्फ कांग्रेस-भाजपा, मोदी-राहुल के नाम पर प्रभावित-दिग्भ्रमित होकर अपने-अपने अनुमान-आकलन दे रहे हैं उन्हें ऐसा करके खुशफहमी में रहने दिया जाए और जो लोग वाकई राजनैतिक विश्लेषण में रुचि रखते हैं, राजनैतिक विश्लेषण को शोधपरक अध्ययन मानते हैं वे कर्नाटक की वास्तविकता को जांचने-परखने के बाद ही अपना गंभीर और वास्तविकता के करीब आकलन प्रस्तुत करेंगे. ऐसे ही आकलन राजनीति के अध्ययन की पहचान होते हैं, राजनैतिक विश्लेषण को स्वीकार्य बनाते हैं और देश की राजनैतिक स्थिति का सही-सही अनुमान, पूर्वानुमान, आकलन, परिणाम बताते हैं. आज के विभ्रम भरे दौर में ऐसे ही अध्ययन, विश्लेषण, आकलन की आवश्यकता है. 

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