15 जनवरी 2013

मौत तू न कविता है, न ही महबूबा



            मौत को लेकर तमाम सारे साहित्यकारों ने, कवियों ने, दार्शनिकों ने अनेक तरह की शायराना बातें कही हैं। कोई मौत को कविता बताकर उसका गुणगान करता है तो कोई मौत को महबूबा बताकर उसकी वफा के किस्सों को सुनाया करता है, किसी को मौत एक खुशनुमा पल लगता है तो कोई मौत को बहुत ही रंगीन मानता है जिसके लिए व्यक्ति जिन्दगी को छोड़ देता है। यकीनन मृत्यु जीवन का अकाट्य सत्य है और इससे पार पाना अभी तक चिकित्साविज्ञान के लिए एक रहस्य ही बना हुआ है। अनेक प्रकार के कदमों को उठाकर तमाम सारी बीमारियों से व्यक्ति को छुटकारा दिलावाया जा चुका है किन्तु मौत को अभी तक रोक पाना सम्भव नहीं हो सका है। ऐसे में भले ही मौत इस नश्वर जीवन का कितना भी बड़ा सत्य क्यों न हो, हमारी दृष्टि में वह कदापि सुखद, शायराना, महबूबा जैसी नहीं हो सकती है। 
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            हम अपने आसपास आये दिन किसी न किसी रूप में मौत के दर्शन देख ही लेते हैं। कभी कोई अपनी अवस्था को प्राप्त कर मौत की नींद सोता है तो कोई असमय ही काल का ग्रास बन जाता है। किसी को हम सहजता से इस संसार से विदा होते देखते हैं तो अनेक लोगों को बीमारियों से लड़ते हुए अपनी अंतिम सांस लेते देखा जाता है। कभी दुर्घटना में, कभी आपदाओं में, कभी आतंकी घटनाओं में, कभी किसी अन्य कारण से लोगों को मौत के आगोश में जाते देखते हैं। जितने लोग, मृत्यु के उतने ही स्वरूप किन्तु शायद ही किसी व्यक्ति को किसी भी मौत का स्वरूप शायराना, महबूबा जैसा दिखलाई दिया हो? यह बात समझ से परे है कि कैसे किसी दुर्घटना में शिकार हुये बचपन की मृत्यु शायराना हो सकती है? कैसे किसी युवा की मौत को उसकी महबूबा कहा जा सकता है? कैसे किसी आतंकी हमले में मारे गये लोगों के लिए मौत कविता बनकर आती होगी? उफ!!! हां, सम्भव है कि किसी समय में जबकि व्यक्ति सामाजिक रूप से अपने समस्त दायित्वों को निभाकर, अपने कर्तव्यों का पूर्णरूप से निर्वहन करने के बाद, अपनी आयु की पूर्णता प्राप्त करने के बाद, समस्त सामाजिक-बोध को सम्पन्न करने के बाद इस संसार से विदा लेता होगा तो उसके लिए मौत को महबूबा, कविता, शायराना हो सकती होगी। यह स्थिति भी अपने आपमें किन्तु, परन्तु के बीच भटकती दिखती है।
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            आज जबकि व्यक्ति सामाजिक रूप से अपने दायित्वों को, अपने कर्तव्यों को पूर्ण कर पाने में कहीं न कहीं असफल सा दिख रहा है; आपाधापी और तनाव भरी जिन्दगी में असमय ही लोगों को कालकलवित होते देखा जा रहा है; आधुनिकता के वशीभूत व्यतीत होने वाली जीवनशैली ने व्यक्तियों की आयु को भी लगातार कम किया है ऐसे में कैसे कल्पना की जाये कि किसी की भी मौत कविता होती होगी, किसी को भी अपनी मृत्यु किसी महबूबा सी दिखती होगी, किसी के लिए भी मौत शायराना होती होगी। जिन्दगी का सत्य यही है कि मौत एक न एक दिन आनी है और यह भी सत्य है कि मौत हमेशा ही कष्ट देती है। यह कष्ट मौत पाने वाले को, उसके परिवार वालों, परिचितों को, आसपास वालों को अवश्य ही होता है। मृत्यु के इस कष्ट को दूर करने का क्षणिक प्रयास मात्र ही उसको कविता रूप में, महबूबा रूप में, शायराना रूप में समाज के सामने भले ही रखना यथोचित माना गया हो किन्तु अन्ततः मौत मार्मिक होती है, कष्टकारी होती है, दुखद होती है; वह चाहे किसी अपने की हो अथवा किसी गैर की; किसी वृद्ध की हो, युवा की हो अथवा बचपने की।
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