12 दिसंबर 2010

सूचना का अधिकार अधिनियम --- नए लोकतंत्र की राह


नये लोकतन्त्र के उदय की राह निर्मित
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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सूचना अधिकार अधिनियम पर एक संक्षिप्त जानकारी

समाज की व्यवस्था और सत्ता पक्ष में लगातार परिवर्तन होते दिखते हैं। परिवर्तन के इसी दौर से भारतीय लोकतन्त्र भी गुजर रहा है। देश में लोकतन्त्र होने के बाद भी बहुधा हमें राजशाही के दर्शन हो जाया करते हैं। यह राजशाही लोकतान्त्रिक व्यवस्था के साथ-साथ चुपके से चली आ रही होती है। यह लोकतान्त्रिक राजशाही आम आदमी से सत्ता पक्ष की, शासन वर्ग की तमाम सारी कमियों और बुराइयों को छिपा कर रखती है। इस व्यवस्था का प्रयास होता है कि किसी भी जानकारी, सूचना का उपयोग लोकतान्त्रिक राजा ही कर सके।



चित्र गूगल छवियों से साभार

औद्योगिक क्रांति तथा उदारीकरण के आगमन ने नागरिक स्वतन्त्रता की अवधारणा को जन्म दिया। इस अवधारणा के बाद लोकतान्त्रिक शासन प्रणालियों में बदलाव आने शुरू हुए। सत्ता पक्ष को एहसास होने लगा कि अब ज्यादा दिनों तक गोपनीयता को अपनी थाती बताकर सूचनाओं को दबाकर रख पाना सम्भव नहीं।

यह देश की शासन व्यवस्था की विद्रूपता ही कही जायेगी कि जनता के द्वारा जनता के लिए बना शासन ही जनता के पक्ष में खड़ा नहीं दिखता है। लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के द्वारा चुनकर आये जनप्रतिनिधि स्वयं को जनता का शासक समझकर कार्य करने लगते हैं। उनके कार्यों का लेखा-जोखा किसी भी रूप में जनता को देखने-मांगने का अधिकार नहीं दिया गया था। इस सोच के पीछे से चुपके-चुपके से बदलाव की बयार चलनी शुरू हुई। विश्व के कई देशों में नागरिक स्वतन्त्रता के रूप में सूचनाधिकार का आना भारत देश के नागरिकों के लिए भी संजीवनी की तरह से कार्य करने वाला था।

सामाजिक कार्यकर्ताओं, जागरूक संस्थाओं और जिम्मेवार नागरिकों की लम्बी लड़ाई और संघर्ष के बाद देश में सूचनाधिकार अधिनियम के प्रति सरकारों ने उत्तरदायी होने की चेष्टा की। इस क्रम में अन्ततोगत्वा सूचना अधिकार का प्रारूप मार्च 2005 को सेसद में पेश किया गया। 11 मई 2005 को लोकसभा में यह 144 संशोधनों के साथ पारित हुआ तथा 12 मई को इसे राज्यसभा में भी पारित कर दिया गया। इसके बाद 12 जून 2005 को राष्ट्रपति ने इसे स्वीकृति दे दी जिसके परिणामस्वरूप 12 अक्टूबर 2005 से सूचना का अधिकार अधिनियम, जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर समूचे देश में लागू हो गया।

नागरिक स्वतन्त्रता की यह बहुत बड़ी जीत थी और इसके बाद देश के आम नागरिक को सूचना मांगने, जानने के स्तर पर एक सांसद और विधायक के समान ही अधिकार प्राप्त हो गये। अधिकारों के प्राप्त होने के बाद जागरूक नागरिकों ने लोकतान्त्रिक राजशाही पर नकेल लगाने का प्रयास भी शुरू कर दिया। भ्रष्ट अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों के कारनामों को उजागर कर दिया। आम आदमी भी अब सरकार के कार्यों को अन्दरूनी रूप में देखने-समझने का अधिकार रखने लगा। यह अधिकार जहां एक ओर आम नागरिक के अधिकारों की जीत थी वहीं अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों ने इसे अपने अधिकारों का हनन समझा। इसका परिणाम यह हुआ कि सूचना अधिकारी ही इस अधिनियम के रास्ते का रोड़ा बनने लगे।

अपने अधिकारों और गोपनीयता कानून की आड़ लेकर काले कारनामें करते भ्रष्टजन इस अधिनियम के कारण खुलासे में आ गये। अपने कारनामों के उजागर होने, अधिकारों में कमी आने, जनता के जागरूक होकर उनके कार्यों का लेखा-जोखा मांगने से खीझे, आक्रोशित अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों ने सूचना का अधिकार अधिनियम का मखौल उड़ाना शुरू कर दिया। सूचना मांगने पर समय से सूचना न देना, बेवजह सूचना मांगने वालों को परेशान करना, शुल्क की नियम विरुद्ध मांग करना, याचिकाकर्ता को डराना-धमकाना आदि भी किया जाने लगा। पराकाष्ठा तो इस बात की हो गई कि इस अधिकार से घबराये कुछ भ्रष्टजनों के कलुषित कदमों ने कई सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं को मौत के घाट भी उतार दिया।

पिछले पांच वर्ष की अधिनियम की यात्रा में खट्टे-मीठे अनुभव हुए हैं। सफलता के द्वार भी खुले हैं तो भय का रास्ता भी दिखाई पड़ा है। इसके बाद भी यह साफ तौर से दिखाई देता है कि इस अधिकार ने आम आदमी को जागरूक किया है। हालांकि अभी भी जागरूकता दर में कमी है फिर भी सफलता की कहानी सुखद मालूम होती है। कुछ छिटपुट घटनाओं और कमियों के बाद भी सूचनाधिकार की शक्ति को कम करके नहीं आंका जा सकता है। स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के साथ भारतीय लोकतन्त्र में एक और नये, जागरूक लोकतन्त्र का उदय हो रहा है।


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