28 सितंबर 2008

रिश्तों की गरिमा

आज लगभग एक सप्ताह के बाद ब्लॉग दुनिया में लौटना हो पाया. इधर कुछ नितांत निजी कार्यों में इतना उलझ गए कि कंप्यूटर के दर्शन ही न हो सके और इसी कारण से ब्लॉग दुनिया से भी दूरी बनी रही. इस बीच बहुत कुछ ऐसा भी हुआ कि सोचते ही रहे कि कुछ न कुछ लिख दिया जाए पर व्यस्तताओं ने ऐसा करने नहीं दिया।
बहरहाल अब लौटे हैं तो कुछ कहने के लिए ही............... एक दो घटनाओं ने मन को थोड़ा विचलित किया और लगा कि क्या अब समाज में रिश्तों का कोई मोल नहीं बचा है? रिश्तों की गरिमा इस कदर ख़तम होती जा रही है कि अब भाई-भाई एक दूसरे का दुश्मन है, बाप-बेटे में रंजिश का माहौल है, माँ-बेटे के बीच तना-तनी है, बहिन-भाई के बीच रिश्तों की पवित्रता संदेहास्पद हो गई है. इसे हो सकता है कि कुछ लोग मेरे मन की बयानवाजी कहें पर आँखें खोल कर जब हम समाज में देखते हैं तो हमें परदे के पीछे छिपे ऐसे कई शैतान नजर आ जाते हैं जो रिश्तों को खोखला करने में लगे हैं।
इन्ही सब के बीच याद आ गई फ़िल्म "रंग दे वसंती", वैसे आप कहेंगे कि इस फ़िल्म में रिश्तों के सन्दर्भ में ऐसा क्या खास था. यहाँ फ़िल्म कि कहानी उतनी महत्ता नहीं रखती जितनी कि उसके भीतर छिपी एक और कहानी की महत्ता है. नौजवानों को लेकर रची-बसी इस फ़िल्म में भ्रष्टाचार से निपटने के अपने तरीके को दर्शाया गया है, यहाँ ये विचारणीय नहीं है. यदि इसके दूसरे पहलू को ध्यान दिया जाए तो ज्ञात होगा कि एक ऐसा संदेश जो शायद फ़िल्म निर्माता, कहानीकार या निर्देशक ने भी ध्यान में नहीं रखा होगा.....और वो है उन सारे दोस्तों का एक साथ मिल कर काम करना.
अपने दोस्त की मौत का बदला लेने का उन लड़कों का तरीका ग़लत हो सकता है पर ये जानते हुए कि इसका अंत जेल है (मौत भी हो सकता है) सभी दोस्तों ने एक साथ मिल कर घटना को अंजाम दिया. वैसे सभी के नजरिये अपने-अपने होते हैं और इनके बीच अपनी-अपनी सोच भी होती है. हो सकता है कि हमारी इस सोच से इत्तेफाक रखने वाले कम हों पर आज जब कि रिश्तों में खटास बुरी तरह आ गई हो उस समय इस तरह के कुछ चित्र (फिल्मों के अलावा दैनिक जीवन में भी मिल जाते हैं) आशान्वित करते हैं कि ऐसे लोग ही रिश्तों को ज़िंदा बनाए रखेंगे।
अभी इतना ही, कुछ व्यस्तता कम हुई है हो सका तो कल फ़िर मिलेंगे.

3 टिप्‍पणियां:

  1. ये सच है कि रिश्ते दरकने लगे हैं। अविश्वास और लालच की आंधी सब कुछ उडाकर ले जा रही है। सही लिखा आपने, लेकिन जीने के लिये अच्छे लोगों की ओर देखना चाहिये। चाहे फ़िर वो अच्छी ही क्यों न हो।

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  2. क्षमा चाहुंगा फ़िल्म शब्द छूट गया था ,मेहरबानी कर इसे जोड्कर पढें।

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  3. देर आए दुरुस्त आए। आगे जमकर लिखें। शुभकामनाएं।

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