साहित्य में समाज की तरह दलित विमर्श को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। देखा जाए तो दलित विमर्श को अभी भी सही अर्थों में समझा नहीं गया है। दलित विमर्श के नाम पर कुछ भी लिख देना विमर्श नहीं है। साहित्यकार को ये विचार करना होगा की उसके द्वारा लिखा गया सारा समाज देखता है। दलित साहित्यकार दलित विमर्श को स्वानुभूती सहानुभूति के नाम देकर विमर्श की वास्तविक धार को मोथरा कर रहे हैं। अपने समाज का मसीहा मानने वाले महात्मा बुद्ध को क्या वे स्वानुभूती या समनुभुती अथवा सहानुभूति के द्वारा अपना रहे हैं? महात्मा बुद्ध तो एक राजपरिवार के सदस्य थे उनहोंने न तो दुःख देखा था न ही किसी तरह का कष्ट सहा था फ़िर दलितों के लिए निकली उनकी आह को दलित अपना क्यों मानते हैं? दलित विमर्श के बारे में यदि गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो यह अपनी धार खो देगा।
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