उत्तर प्रदेश
सरकार द्वारा पचास से कम नामांकन वाले प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों का
नजदीकी विद्यालयों में विलय करने का निर्णय लिया है. ऐसे विद्यालयों की संख्या
हजारों में है जहाँ पर नामांकन पचास से कम है. यदि नामांकन कम है तो उसे बढ़ाया
जाये न कि विद्यालय का विलय कर दिया जाये, उसे बंद कर दिया जाये. वैसे भी सरकारों की प्राथमिकता बच्चों
को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना होता है. न केवल सरकारों द्वारा बल्कि विश्व
बैंक द्वारा भी अनेक योजनाओं को क्रियान्वित किया गया जिनसे बच्चों को विद्यालय
लाया जा सके. संविधान में 86वाँ संशोधन कर शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया. निःशुल्क
और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम अथवा शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अन्तर्गत छह से चौदह वर्ष की आयु वर्ग के बालक-बालिकाओं को निःशुल्क
प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है. सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत
प्राथमिक शिक्षा से वंचित बस्तियों में विद्यालय खोले गए. इन सकारात्मक कार्यों, योजनाओं के बीच सरकार द्वारा शारदा (स्कूल हर दिन आयें) योजना
क्रियान्वित है. इसमें छह से चौदह वर्ष की आयु वर्ग के ऐसे बालक-बालिकाओं का
नामांकन होगा, जो किसी विद्यालय में नामांकित नहीं हैं अथवा
नामांकन के बाद भी अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण नहीं कर सके. ऐसे बच्चों को
चिन्हित कर उनका नामांकन नजदीकी विद्यालयों में आयु-संगत कक्षा में कराया जायेगा
और शिक्षा से लेकर प्रत्येक सामग्री निःशुल्क उपलब्ध करायी जाएगी.
बच्चों तक शिक्षा
की सुलभता सम्बन्धी योजनाओं के बाद भी यदि सरकार को विद्यालयों का विलय करना पड़े
तो स्थिति न केवल गम्भीर है बल्कि चिन्तनीय भी है. सरकार को नामांकन कम होने के
कारणों-कारकों को खोजा जाना चाहिए. उन बिन्दुओं पर विचार करना चाहिए जो प्राथमिक
विद्यालयों, उच्च
प्राथमिक विद्यालयों के नामांकन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहे हैं. विद्यालयों
का विलय सिर्फ एक विद्यालय बंद होना नहीं होगा बल्कि यह अनेक दुष्परिणामों को साथ
लेकर आएगा. सबसे बड़ा दुष्प्रभाव बच्चों की शिक्षा पर ही दिख रहा है. उत्तर प्रदेश के
बेसिक शिक्षा विभाग के हाउसहोल्ड सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार 2020-21
में 4.81 लाख, 2021-22 में 4 लाख से अधिक और 2022-23 में
3.30 लाख बच्चों ने बीच में
स्कूल छोड़ दिया. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में स्कूल छोड़ने की दर अन्य
प्रदेशों की तुलना में अधिक है. इसमें भी लड़कियों का प्रतिशत लड़कों की अपेक्षा
अधिक है.
विद्यार्थियों का
बड़ी संख्या में विद्यालय छोड़ना, नामांकन न करवाना चिन्ता का विषय है. सामाजिक-आर्थिक कारक, गरीबी, लैंगिक विभेद, शिक्षकों की कमी, बुनियादी ढाँचे की समस्या, शिक्षा में अरुचि, बाल
श्रम का प्रचलन, अन्य सामजिक समस्याएँ आदि ड्रॉपआउट का कारण बनती हैं. ऐसे में
विचार किया जाये कि जब बच्चे अपने ही गाँव में अथवा न्यूनतम दूरी पर बने विद्यालय
नहीं जा रहे हैं, तो उनसे कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे कुछ किमी दूर स्थित विद्यालय
जायेंगे? विद्यालयों का दूर होना बालिकाओं के लिए और बड़ी
समस्या होगी. निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, घरेलू ज़िम्मेदारियाँ, सुरक्षा
चिंताओं आदि के कारण उनकी शिक्षा पर पहले से ही संकट छाया रहता है. विद्यालय विलय पश्चात्
उनके स्कूल छोड़ने की आशंका और ज़्यादा है. इसके साथ-साथ शिक्षकों के पदों की
कटौती, नई शिक्षक भर्ती पर संकट, रसोइयों, शिक्षामित्रों का असुरक्षित भविष्य भी इसी से
सम्बद्ध है.
यदि कम नामांकन पर
ध्यान दें तो सरकारी नियम और कार्य-प्रणाली भी इसके लिए जिम्मेदार है. शिक्षा का
अधिकार अधिनियम में प्रावधान के बावजूद सरकारी प्राथमिक विद्यालय के एक किमी
परिक्षेत्र में खुलेआम निजी विद्यालयों को मान्यता दी जा रही है. निजी विद्यालयों
का लगातार बड़ी संख्या में खुलते जाना और अधिनियम के अन्तर्गत गरीब विद्यार्थियों को
प्रत्येक निजी विद्यालय द्वारा अपने यहाँ निशुल्क प्रवेश देने की बाध्यता भी कम
नामांकन का एक कारक है. नियमानुसार निजी विद्यालयों द्वारा गरीब विद्यार्थियों को
प्रवेश देने पर सरकार द्वारा निजी विद्यालयों को प्रतिपूर्ति शुल्क दिया जाता है, अभिभावकों को भी एक निश्चित राशि
प्रदान की जाती है. इस आर्थिक पक्ष के कारण अभिभावकों, निजी
विद्यालयों ने विद्यार्थियों को प्राथमिक विद्यालयों से दूर कर दिया. इसी तरह
सरकारी प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश आयु छह वर्ष और निजी विद्यालय में तीन-चार
वर्ष होने के कारण भी नामांकन पर असर पड़ा है. इसके चलते भी बहुत से माता-पिता अपने
बच्चों को सरकारी विद्यालय के स्थान पर निजी विद्यालय में प्रवेश दिला देते हैं.
इनके अलावा शिक्षकों की कमी, शिक्षकों का दूसरे सरकारी कार्यों में व्यस्त रहना, विद्यालयों में प्राथमिक सुविधाओं की कमी होना,
स्मार्ट क्लासेज की शून्यता आदि भी कम नामांकन के लिए उत्तरदायी बिन्दु हैं.
विद्यालयों का
विलय स्थायी अथवा दीर्घकालिक समाधान नहीं है. इसकी गारंटी कौन लेगा कि भविष्य में
विलय किये गए विद्यालय में कम नामांकन नहीं होगा? ऐसे में विचारणीय बिन्दु यह होना चाहिए कि उन कारणों का पता
लगाकर उनका समाधान किया जाये जिनके कारण विद्यालयों में कम नामांकन हो रहा है. सरकार
को चाहिए कि विद्यालयों के मूलभूत ढाँचे को सुव्यवस्थित करे. शिक्षकों की कमी को
पूरा करने के साथ अन्य कार्यों के लिए अलग से कर्मचारियों की नियुक्ति करे. कक्षाओं
को विकसित बनाया जाये तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हेतु नवीनतम तकनीकों से
विद्यार्थियों को परिचित कराया जाये. सरकारी नीतियों,
योजनाओं को सहज तरीके से अनुपालन योग्य बनाया जाये ताकि अभिभावक परेशान न हों. सरकार
प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र में आ रही समस्या का समाधान करे,
लगातार गहराते जा रहे रोग का इलाज करे न कि सम्बंधित अंग को ही काट कर अलग कर दे.
शिक्षक संगठनों, अभिभावकों द्वारा इस निर्णय का विरोध किये
जाने के बाद सरकार से अपेक्षा की जा सकती है कि वह अपने निर्णय पर पुनर्विचार करके
शिक्षा को सुलभ, सहज बनाने का प्रयास करेगी. सरकार को ध्यान
रखना चाहिए कि उसका लक्ष्य बच्चों को शिक्षा उपलब्ध करवाना है न कि उनको शिक्षा से
वंचित करना, इसके लिए उसे अतिरिक्त आर्थिक बोझ ही क्यों न
उठाना पड़े.