"कृष्ण
को क्या आप अपहरण-भूषण नहीं कहेंगे? खुद ने तो रुक्मिणी का
अपहरण किया ही था, अर्जुन को भी बहन सुभद्रा का अपहरण करने
को लालायित करते हैं।"
असल में समाज की
व्यवस्थायें जब बदल जाती हैं, तो बहुत-सी बेतुकी हो जाती हैं। एक युग था जब किसी स्त्री का अपहरण न किया
जाए, तो उसका एक ही मतलब था कि उस स्त्री को किसी ने भी नहीं
चाहा। एक युग था कि जब किसी स्त्री का अपहरण न किया जाए, तो
उसका मतलब था कि उसकी कुरूपता सुनिश्चित है। एक युग था जब सौंदर्य का सम्मान अपहरण
था। और अब वह युग नहीं है। लेकिन आज भी अगर यूनिवर्सिटी कैंपस में किसी लड़की को
कोई भी धक्का नहीं मारता तो उसके दुख का कोई अंत नहीं है। कोई अंत नहीं है उसके
दुख का। और जब कोई लड़की आकर दुख प्रगट करती है कि उसे बहुत धक्के मारे जा रहे हैं
तब उसके चेहरे को गौर से देखें, उसके रस का कोई अंत नहीं है।
स्त्री चाहती रही है कोई अपहरण करने वाला उसे मिले। कोई उसे इतना चाहे कि चुराना
मजबूरी, जरूरी हो जाए। कोई उसे इतना चाहे कि मांगेंगे नहीं,
चुराने को तैयार हो जाए।
तो कृष्ण जिस युग
में थे उस युग को समझेंगे तब यह बात खयाल में आ सकती है। और मैं मानता हूं कि यह
हिम्मतवर युग था। यह भी कोई बात कि पंचांग और पत्रा को दिखाकर कोई विवाह कर ले!
लेकिन कृष्ण जब किसी को उत्प्रेरित भी कर रहे हैं अपहरण के लिए, तो इसीलिए कि वह कहते हैं कि प्रेम
इतनी बड़ी चीज है कि अगर वह है, तो अपहरण भी किया जा सकता है,
दांव लगाया जा सकता है। और प्रेम कोई नियम नहीं मानता। और युग था वह
जो प्रेम का युग था। जिस दिन नियम शुरू हो जाते हैं, उसी दिन
मानना चाहिए कि प्रेम की शक्ति शिथिल हो गई है। अब प्रेम बहुत चुनौतियां नहीं लेता,
दांव नहीं लगाता। उस युग के पूरे-के-पूरे ढांचे को समझेंगे तो खयाल
में आएगा। यह कृष्ण किसी विशेष युग में पैदा हुए हैं। उस युग की व्यवस्था का हमें
खयाल नहीं है। हमारे युग की व्यवस्था को हम उन पर थोपने जाएंगे तो वह कई बार
अनैतिक मालूम पड़ने लगेंगे। लेकिन मुझे भी लगता है कि शौर्य के युग, जब जिंदगी में तेज होता है और जब जिंदगी में शान होती है, तो चुनौती के और दांव के युग होते हैं। शिथिल और मरे हुए समाज, जब जिंदगी में सब चुनौती खो जाती है और सब ढीला-ढाला होता है, और तरह की नीतियां बनाते हैं जो मुर्दा नीतियां होती हैं। न, मैं तो कहूंगा कि कृष्ण अगर अपहरण करके न लाएं किसी स्त्री का और उसी
स्त्री के बगैर खबर भेजें, उसके पिता के हाथ-पैर पड़ें और सब
उपाय करें, तो उस स्त्री का अपमान होगा, उस युग में अपमान होगा। वह स्त्री इसे पसंद नहीं करती। वह कहती कि इतनी भी
हिम्मत नहीं है मुझे चुरा सको, तो छोड़ो यह बात!
हमें खयाल नहीं है
कि आज भी--युग तो बदल जाते हैं, लेकिन कुछ ढांचे चलते चले जाते हैं--आज भी जिसे हम बरात कहते हैं, किसी दिन वे प्रेमी के साथ गए हुए सैनिक थे। और जिसे आज हम दूल्हा को घोड़ा
पर बिठाते हैं, दूल्हे को--दूल्हे को घोड़े पर बिठाना बिलकुल
बेमानी है, कोई मतलब नहीं है--और एक छुरी भी लटका देते हैं
उसके बगल में, वह कभी तलवार थी और कभी वह घोड़ा किसी को
चुराने गया था और कुछ साथी थे उसके जो उसके साथ गए थे, वह
बरात थी। और आज भी आपको पता होगा कि जब बरात आती है तो लड़की के घरवाली स्त्रियां
गालियां देना शुरू करती हैं। कभी सोचा कि वे गालियां क्यों देती हैं? वह जिसके घर की लड़की चुराई जा रही होगी, उसकी दी गई
गालियां होंगी। लेकिन अब काहे के लिए गालियां दे रही हैं, वह
खुद ही इंतजाम किए हैं सब। आज की लड़की का पिता झुकता है, आज
भी। अब कोई कारण नहीं है लड़की के पिता के झुकने का। कभी उसे झुकना पड़ा था। कभी जो
उसे छीनकर ले जाता था, जो विजेता होता था, उसके सामने झुक जाना पड़ा था। वह कभी के नियम थे, जो
अब भी सरकते हुए मुर्दा हालत में चलते चले जाते हैं।
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साभार ओशो - कृष्ण स्मृति, प्रवचन – १०
स्वस्थ राजनीति के
प्रतीकपुरुष कृष्ण
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