29 नवंबर 2023

हौसलों ने जीती जंग

अंततः पिछले सत्रह दिनों से देश भर की अटकी हुई साँसों ने राहत महसूस की. लगभग चार सौ घंटों के अनथक प्रयासों के बाद मंगलवार रात मजदूरों को निकालने की प्रक्रिया शुरू हुई और सुरंग में फँसे सभी 41 मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया. उत्तरकाशी की सिलक्यारा सुरंग में सत्रह दिन पूर्व रोज की तरह ही मजदूर अपने काम में लगे हुए थे. उसी समय हुए भूस्खलन के कारण ये मजदूर उसी सुरंग में फँस गए. इस सूचना पर प्रशासन ने राहत एवं बचाव कार्य तेजी से शुरू कर दिए. राहत और बचाव कार्य आरम्भ होने के समय बचाव दलों को सारी प्रक्रिया सुगमता से संपन्न होने वाली समझ आ रही थी किन्तु जैसे-जैसे बचाव कार्य आगे बढ़ा तो अनेकानेक कठिनाइयाँ सामने आने लगीं. बचाव कार्य के आरम्भ में एक राहत भरी खबर मिली. सुरंग से निकला चार इंच व्यास का सत्तर फुट लम्बा स्टील का एक पाइप सुरंग के अन्दर मजदूरों और बाहर के लोगों के बीच संपर्क का माध्यम बना. उस पाइप के द्वारा जब सुरंग में फँसे मजदूरों ने पानी बाहर भेजा तो बचाव दलों को उनके जीवित होने की खबर लगी. उनमें ख़ुशी, उत्साह का संचार हुआ. इसी पाइप के सहारे सुरंग के भीतर दवाएँ, खाद्य सामग्री और ऑक्सीजन आदि पहुँचाई जाती रही. मजदूरों के परिजनों की, प्रशासनिक अधिकारियों की, बचावकर्मियों की आवाजों का भीतर जाना भी सुरंग के भीतर के मजदूरों में आशा का संचार किये रहा. 




ऐसी स्थिति के बाद भी सवाल ज्यों का त्यों बना था कि मजदूरों को सुरंग से बाहर कैसे लाया जायेगा? बचाव कार्य युद्ध-स्तर पर चल रहा था. राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल (एनडीआरएफ) लगातार विभिन्न विभागों के विशेषज्ञों, इंजीनियरों से संपर्क बनाये हुए था. इसके साथ-साथ रेल विकास निगम लिमिटेड, टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड, ओएनजीसी, सतलुज जल विद्युत निगम आदि भी बचाव कार्य में पूरी तत्परता से लगे थे. देश के विशेषज्ञों के साथ-साथ विदेशी विशेषज्ञों की सलाह और अनुभव का लाभ लिया जा रहा था. एकबारगी लगा कि मजदूरों तक जल्द पहुँच पाना संभव हो सकेगा और ऐसा हुआ भी. लगातार खुदाई के बाद जो पाइप सुरंग के भीतर पहुँचाया गया, उसके द्वारा एनडीआरएफ के जवानों ने प्रवेश किया. उनका उद्देश्य मजदूरों को बाहर निकलने का तरीका समझाना था. इन जवानों के द्वारा पाइप के माध्यम से पहुँच बनाये जाने पर जानकारी हुई कि पाइप किसी लोहे की ठोस रॉड के कारण बाधित हो रहा है. इसी रॉड को काटने की कोशिश में अमरीकी ऑगर मशीन भी ख़राब हो गई. ऐसी स्थिति के बाद मजदूरों तक पहुँच बनाने के दूसरी प्रक्रिया को अपनाया गया. इसमें सुरंग के ऊपर से लंबवत (वर्टिकल) खुदाई शुरू की गई.


मशीनें अपनी क्षमता से बचाव कार्य को सुगम बनाने में लगी थीं तो प्राकृतिक स्थिति उसमें रुकावट पैदा कर देती थी. मशीनों के लगातार सफल-असफल होने की स्थिति के बीच 26 नवम्बर को बचावकार्य के लिए रैट होल माइनर्स को लगाया गया. एक निजी कंपनी ट्रेंचलेस इंजीनियरिंग सर्विसेज की सहायता से इनको बचाव स्थल पर बुलाया गया. यह टीम ड्रिल मशीनों के साथ सुरंग में पहुँचने का रास्ता बनाती है. बड़ी-बड़ी मशीनों के स्थान पर इनके द्वारा खुदाई का कार्य हाथों से किया जाता है. यह टीम हाथों और छोटी ड्रिल मशीन के द्वारा मलबे की खुदाई करके सुरंग में जाने का रास्ता बनाती है. इस प्रक्रिया में एक बार में दो रैट माइनर्स ही पाइपलाइन में जाते हैं. एक व्यक्ति आगे का रास्ता बनाता है और दूसरा व्यक्ति निकले हुए मलबे को ट्रॉली में भरने और बाहर निकालने का काम करता है. जब पाइपलाइन के अंदर काम कर रहे दो लोग जब थक जाते हैं तो वे बाहर निकल आते हैं और रैट माइनर्स टीम के दो सदस्य बाहर से अंदर जाते हैं. मशीनों के बीच जिस तेजी से इन रैट माइनर्स ने अपना काम मुस्तैदी से दिखाया उसने उत्तरकाशी सुरंग बचाव कार्य में उम्मीदों को पंख दिए थे. अपने अंतिम प्रयास में एकबारगी सफलता के बीच हलकी सी मायूसी भी एनडीआरएफ और एसडीआरएफ के जवानों के हाथ लगी. आखिरी पाइप के हिस्से को जब मजदूरों तक पहुँचाने के बाद ये जवान उसके द्वारा अन्दर गए तो पता चला कि निकास के सिरे पर पानी जमा है. इसके बाद पाइप का हिस्सा पुनः आगे खिसकाने का काम किया गया. तीन मीटर की दूरी तक पाइप को धकेलने के बाद मजदूरों से संपर्क किया जा सका.


निश्चित ही सत्रह दिन तक चली इस अबाध बचाव प्रक्रिया के बाद सभी मजदूरों को सकुशल बाहर निकाल लाना ख़ुशी प्रदान करने वाला है मगर यह पुनः सवाल भी उठाता है. आखिर सुरंग बनाने के काम में लगे विशेषज्ञ, इंजीनियर और कम्पनियाँ लापरवाही क्यों बरतती हैं? क्यों उनके द्वारा ऐसी तत्परता, बचाव प्रक्रिया किसी दुर्घटना के बाद ही शुरू होती है? इन प्रश्नों के बीच विचार किया जाना चाहिए कि पहाड़ी क्षेत्रों में सर्दी के दिनों में बिना सूरज की रौशनी के सत्रह दिनों तक ये मजदूर किस तरह खुद को आशान्वित किये रहे होंगे कि वे सकुशल बाहर निकलेंगे? यह निश्चित ही श्रमिकों के हौसले की जीत है, देशी-विदेशी विशेषज्ञों, बचाव दलों की तत्परता की जीत है. इसके बाद भी सुरंग निर्माण से जुड़ी कंपनियों को, प्रशासन को, सरकारों को इस तरफ सुरक्षा व्यवस्था और चाक-चौबंद करने की आवश्यकता है. 





 

1 टिप्पणी:

  1. एक दम सही बात कही है आपने। जब तक कोई बड़ी घटना न हो जाए तब तक चलता है ऐटिटूड ही रहता है हम लोगों का। जब दुर्घटना घटित हो जाती है उसके बाद ही होश आता है। पर चलिए अंत भला तो सब भला। उम्मीद है इस दुर्घटना से लोग सीखेंगे और उचित कदम उठायेंगे।

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