14 अक्टूबर 2023

पांडव-पांचाली से सुनहली मुलाकात

होम स्टे वाले ने घर का बनाया बेहतरीन भोजन पूरे मन से करवाया. एक बात पूरी यात्रा में विशेष ये देखने को मिली कि यहाँ लोगों ने बहुत मन से आवभगत की. होटल वाले, ढाबे वाले चाय-नाश्ता भी ऐसे करवाते जैसे उनके यहाँ मेहमान बनकर आये हों. बारिश रात के नौ बजने पर भी हो रही थी. जिस तरह से वहाँ के मौसम के बारे में बताया गया था, उसके चलते शंका हुई कि सुबह पंचाचूली पर्वत श्रृंखला दिखाई भी देगी या नहीं? होम स्टे वाले ने बताया कि सुबह साढ़े पाँच-छह बजे तक उठ जायेंगे तो बहुत आराम से पंचाचूली के दर्शन हो जायेंगे. जो ठंडक हमारे लिए गुलाबी-गुलाबी सी बनी हुई थी उसी ने हमारे दोनों दोस्तों के लिए कड़ाके वाली ठंडक का एहसास बना रखा था. होम स्टे के कमरे की खिड़की से पंचाचूली पर्वत श्रेणी अभी निपट काली सी नजर आ रही थी. उसे बर्फ में लिपटी देखने की लालसा लिए नींद का रास्ता देखने लगे. 


पंचाचूली पर्वत श्रेणियाँ 

जैसा कि हमारे साथ बहुत लम्बे समय से हो रहा है, रात भर नींद का आना-जाना बना रहा. आँख खुलने पर एक निगाह खिड़की से सामने वाली पर्वतमाला पर डाल लेते और माहौल ज्यों का त्यों बना देखकर वापस नींद की राह ताकने लगते. कैमरा, मोबाइल भी एकदम तत्परता से मुस्तैद थे. उनको आदेशित कर रखा गया था कि किसी भी रूप में चूकना नहीं है. इससे पहले कि बादल पंचाचूली को अपने आगोश में लें, उसकी बहुत सारी फोटो और वीडियो निकाल लेना है. सुबह धुंधलके जैसी स्थिति में पंचाचूली नजर आने लगी. कहा जाता है कि पांडवों ने द्रोपदी सहित यहीं से स्वर्ग के लिए चलना शुरू किया था. वे लोग जब चले होंगे यहाँ से तब चले होंगे, हम लोगों ने अपने-अपने कैमरे, मोबाइल चलाने शुरू कर दिए.






समय के साथ-साथ रौशनी भी बढ़ती जा रही थी. सबसे बड़े पर्वत, जिसे युधिष्ठिर माना जाता है के सिर पर सुनहला मुकुट जैसा भी कुछ पल के लिए दिखाई देने लगा. उसके साथ-साथ बाकी पर्वत श्रेणियाँ भी सुनहले रंग की चादर ओढ़ती नजर आईं. ऊपर से सूरज की रौशनी में पंचाचूली का चमकना होता जा रहा था, नीचे से बादल उसे अपने आगोश में लेने के लिए ऊपर आते जा रहे थे. दो-दो, चार-चार मिनट में ऐसा लगता जैसे उसके रूप में परिवर्तन हो रहा है. इधर चाय के स्वाद ने सामने रजत पर्वत श्रृंखला को देखने का मजा और बढ़ा दिया. दो-तीन घंटे अपने कमरे के सामने बने टैरेस पर, ऊपर छत पर कब, कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला. जब नीचे से ऊपर को चले आते बादलों ने पंचाचूली को पूरी तरह से अपने रंग में रंग लिया तो हम तीनों लोग भी अपने-अपने कमरों में आकर आगे की यात्रा की तैयारी में लग गए.


आगे की यात्रा वहीं स्थानीय बाजार, कुछ जगहें, नंदा देवी मंदिर आदि घूमने के बाद वापस पिथौरागढ़ के लिए करनी थी. इसी बीच दो-तीन बार चाय के मजेदार स्वाद के साथ नाश्ता भी आ गया. हँसी-मजाक के बीच जिस भाँग की चटनी की चर्चा पिथौरागढ़ में सेमीनार हॉल में हुई थी, वो चटनी यहाँ मुनस्यारी में नाश्ते की थाली में आलू के गरमागरम पराठे के साथ सजी दिख रही थी. होम स्टे वाले लड़के ने और हमारे ड्राईवर ने बताया कि इसे खाने से नशा नहीं होता है मगर अनजान जगह होने के कारण और सफ़र करने के कारण भाँग की चटनी का स्वाद नहीं लिया. हाँ, हल्की सी चख ली गई तो कुछ दानेदार जैसी समझ आई.


कमरे से निकल कर कार के साथ हम तीनों लोग अब सड़क पर थे. नंदा देवी मंदिर के परिसर से मुनस्यारी से दस-बारह किमी दूर स्थित खलिया टॉप दिखाई पड़ता है, ऐसा कुछ बताया गया मगर शायद तेज धूप होने के कारण आसपास बस बादल ही बादल दिखाई पड़ते रहे. नंदा देवी मंदिर के विशाल घासयुक्त मैदान में फोटो खींचने की तो अनुमति थी मगर ड्रोन से फोटोग्राफी करना प्रतिबंधित था. ऐसा क्यों है वहाँ, किसी से पूछा नहीं, सो बता नहीं सकते. इसी परिसर में बहुत सी झाड़ी लगी थीं, बहुत छोटे-छोटे लाल फल से लदी हुईं. फलों को तोड़कर देखा तो हलके गूदेदार समझ आये मगर अपरिचित फल होने के कारण उनको खाने की कोशिश भी नहीं की. हालाँकि अरुण ने कई बार प्रयास किया कि उस फल को अपने मुँह के हवाले कर ले मगर बाकी हम दोनों के मुखारविंद से निकलती तेज-तेज आवाजों ने उसका प्रयास सफल नहीं होने दिया. जब मंदिर के लगभग बाहर आने को हुए तो दो-तीन लोगों को उसी फल को झाड़ियों से तोड़-तोड़ कर खाते देखा. ये देखकर अरुण की हिम्मत बढ़ी और उसने भी लपक कर कई सारे फल चबा लिए. उन्हीं दोनों स्थानीय लोगों ने बताया कि ये पहाड़ी सेब है, स्थानीय भाषा में घिंघारू कहते हैं. कार में बैठे-बैठते कुछ का स्वाद लिया तो बेर की तरह, सेब की तरह का मिला-जुला स्वाद समझ आया.



घिंघारू या पहाड़ी सेब 

पिथौरागढ़ की तरफ लौटने की योजना दूसरी तरफ के रास्ते से थी मगर स्थानीय लोगों ने बताया कि उस सड़क पर लगातार काम चलने के कारण रास्ता ख़राब है. कार फँसने की आशंका है. ऐसे में जिस रास्ते मुनस्यारी आना हुआ था, उसी रास्ते वापस जाने का मन बना लिया. हाँ, मुनस्यारी में बाजार के और वहाँ स्थित जनजातीय विरासत संग्रहालय के नज़ारे भी ले आये. संग्रहालय के केयर टेकर जरूर घनघोर खुड़खुड़िया मिले. पता नहीं उस दिन वो अपने घर से लड़-झगड़ कर आये थे या उनका स्वभाव ही ऐसा था. बहरहाल, हम लोगों ने अपने खिलंदड़ स्वभाव के साथ ही उस छोटे से सांस्कृतिक निजी संग्रहालय को देखा. यह संग्रहालय भोटिया लोगों के इतिहास, संस्कृति और जीवनशैली के बारे में जानकारी देता है. ऊँची, खड़ी पहाड़ी पर बने इस संग्रहालय तक पहुँचने और वापस आने में दिमाग ठिकाने लग गए, महज सौ, डेढ़ सौ मीटर का रास्ता अन्तरिक्ष तक पहुँचने का रास्ता लग रहा था.








जिस रास्ते जाना हुआ था, उसी रास्ते से भले आना हुआ मगर नया सा अनुभव दे रहा था. लौटते में बिर्थी फॉल में ठहर कर आवभगत से भरपूर चाय-नाश्ता का स्वाद लिया गया. जगह-जगह बादलों, बारिश से परिचय करते हुए अंततः पिथौरागढ़ में होटल की शरण में आ गए. पिथौरागढ़ की अंतिम शाम को वहाँ का बाजार घूमने का मन बनाया मगर स्थानीय वाहन सुविधा न होने के चलते मन को वापस होटल के टैरेस की तरफ मोड़ लिया. अगली सुबह हल्द्वानी के लिए निकलना था. रास्ते में जागेश्वर धाम सहित रास्ते के कुछ दर्शनीय स्थलों को भी कैमरे में कैद करना था. पिछले कुछ दिनों की यात्रा के अनुभव, अगले दिन की प्लानिंग के साथ रात को गहराने दिया, नींद को आँखों तक आने दिया. 


(क्रमशः)






 

1 टिप्पणी:

  1. बहुत खूबसूरत शब्दों में बांधा है यादों को।फ़ोटो भी अच्छी तरह से क़िस्साबयानी का साथ दे रहीं है।

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