शायद
शीर्षक पढ़कर आपको आश्चर्य के साथ-साथ अजीब सी अनुभूति हुई हो? आश्चर्य किये बिना
एक पल को अपने आसपास फैलाते सोशल मीडिया जाल के बारे में विचार करिए तो आपको ये सच
लगने लगेगा. क्या ऐसा नहीं हो रहा है कि हम लोग मौत की
खबरों का, किसी की मृत्यु से पूर्व उसकी शारीरिक अवस्था का, दुर्घटनाओं के वीभत्स दृश्यों आदि का प्रसारण करने से खुद को नहीं रोक पा
रहे हैं? मौत की खबरों का बिना सोचे-समझे शेयर करना बताता है कि अब किसी की मौत
हमें परेशान नहीं करती. किसी की मौत हमें संवेदित नहीं करती. संवेदनहीनता की हद से
आगे जाकर कुछ लोगों को मौतों पर कार्टून, मीम्स, जोक्स बनाकर मस्ती करते तक देखा जा सकता है. क्या
ये सोशल मीडिया पर मौत का जश्न नहीं है?
इस
तरह की मानसिकता अचानक से उत्पन्न नहीं हुई है बल्कि सोशल मीडिया को नशे की तरह से
इस्तेमाल करने से ऐसा होने लगा है. देखा जाये तो ये पंक्ति वो तड़प कर अपनी जान से गया, खेल का सामान हमारे
लिए बन गया सोशल मीडिया पर चरितार्थ हो रही है. अब
घटना सुखद हो या फिर दुखद, विषय हास्य का हो या फिर
विषाद का, कार्यक्रम का आयोजन हो या फिर दुर्घटना की
भयावहता, सबकुछ सोशल मीडिया पर शेयर करने का चलन हो
गया. दरअसल हर हाथ में मोबाइल, हर हाथ में इंटरनेट, हर हाथ में तकनीक ने यदि जीवन को विविध पहलुओं के सन्दर्भ में सहज-सरल
बनाया है तो उसके साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं का गला भी घोंट दिया है.
अब
ये जानकारी ही नहीं कि प्रसारित करने वाली किस खबर से समाज पर, समाज के व्यक्तियों पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है. लोगों को इसका भी भान
नहीं है कि उनके द्वारा जाने-अनजाने में प्रसारित की जाने वाली खबरों से, प्रसारित किये जाने वाले चित्रों से लोगों के मन-मष्तिष्क पर क्या प्रभाव
पड़ रहा है. हम रोज ही सोशल मीडिया के माध्यम से हिंसा, बलात्कार, हत्या, दुर्घटना सम्बन्धी वीभत्स दृश्यों को
देख रहे हैं. रक्तरंजित शव, फंदे पर लटकती देह, दुर्घटना में क्षत-विक्षत शरीर सहित न जाने कितनी तरह के ह्रदयविदारक
चित्र हमारे सामने एक क्लिक पर गुजर जाते हैं. यहाँ इन चित्रों को भेजने वालों की
मंशा किसी भी रूप में किसी शरीर का, किसी देह का, किसी की नग्नता का प्रदर्शन करना नहीं होता होगा, किसी भी रूप से उसका मकसद नग्न देह को देखने-दिखाने का भी नहीं होता होगा
किन्तु ऐसे लोग अनजाने में एक ऐसी प्रवृत्ति का विकास कर रहे होते हैं जो भविष्य
में मानवीय संवेदनाओं को समूल नष्ट कर देगी.
सबसे
पहले सूचना देने के लोभ में ऐसे-ऐसे चित्रों का, वीडियो
का प्रसारण होने लगता है जिसे नैतिक नहीं कहा जा सकता है. वैसे ऐसे दौर में जबकि
रिश्तों का, संबंधों का, संस्कारों
का मोल न रह गया हो वहाँ नैतिकता की बात करना स्वयं को कटघरे में खड़ा करना है
किन्तु समझना होगा कि जाने-अनजाने समाज को किस दिशा में मोड़ा जा रहा है. कभी ऐसे
चित्रों का प्रकाशन-प्रसारण निषिद्ध माना जाता था; ऐसे
चित्रों को उजागर करने का अर्थ मृत व्यक्ति के साथ अन्याय करना समझा जाता था; क्षत-विक्षत देह को सार्वजानिक रूप से प्रदर्शित करना नृशंस माना जाता था
किन्तु आज तकनीकी के चलते इसे जागरूकता फ़ैलाने वाला समझा जाने लगा है. तकनीक के
प्रचार-प्रसार को रोक पाना अब किसी के लिए संभव नहीं है. ऐसे में स्वयं नागरिकों
को, सोशल मीडिया का अतिशय उपयोग करने वालों को सजग होना
पड़ेगा कि उनके द्वारा क्या पोस्ट किया जाये, क्या
प्रतिबंधित रखा जाये. ये सत्य है कि वर्तमान में सोशल मीडिया की उपयोगिता को
भुलाया नहीं जा सकता है पर इसके साथ-साथ आते एक अप्रत्यक्ष सा संकट को भी विस्मृत
नहीं किया जा सकता है.
नज़रों
के सामने से गुजरती ऐसी तस्वीरें, वीडियो शुरू में
मन-मष्तिष्क को विचलित करती हैं, संवेदित करती हैं
किन्तु नज़रों के सामने से लगातार इनका गुजरते रहना इसका अभ्यस्त बना देता है.
मन-मष्तिष्क का ऐसे दृश्यों का अभ्यस्त होना संवेदनाओं समाप्त होना है. घटना के
प्रति, दुर्घटना के प्रति, मरने
वाले के प्रति, शोषित के प्रति, मृत देह के प्रति ऐसा व्यक्ति संवेदना के स्तर पर जुड़ने में असहज महसूस
करता है या कहें कि जुड़ नहीं पाता है. यही कारण है कि आज हत्या, बलात्कार, आत्महत्या, हिंसा, दुर्घटना आदि की खबरें, दृश्य हमें संज्ञा-शून्य बनाये रखते हैं. हमारे लिए ऐसी खबरें मात्र खबर
बनकर रह जाती हैं, सूचनाएँ बनकर समाप्त हो जाती हैं.
दरअसल
हम सभी की संवेदनाएं मर चुकी हैं. रोज हम हत्या, बलात्कार, दुर्घटना, मृत्यु की सजीव फोटो देखते रहते हैं.
दो-चार दिन की संवेदना के बाद हम सभी वही चिर-परिचित पाषाण ह्रदय बन जाते हैं. कब
हम इंसान से जानवर बन जाते हैं, कब इन दृश्यों को महज
जानकारी आदान-प्रदान करने का माध्यम बना देते हैं हमें स्वयं ही पता ही नहीं चल
पाता है. उसके बाद सामने वाला हमारे लिए महज एक देह बन जाता है. आखिर हम सबको उस
मौत पर जश्न मनाना ही है क्योंकि वो मरने वाला हमारा अपना नहीं. अब वो मरने वाला
कोई नामचीन है या फिर सामान्य व्यक्ति, इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता. हमें तो बस इससे मतलब है कि उसमें ऐसा क्या है जो उसकी मौत पर हम जश्न
कर सकें. काश कि हम सभी अपनी भावी पीढ़ी को नृशंसता का, वीभत्सता
का, विकृतता का अर्थ समझा सकें. कहीं ऐसा न हो कि कल को
ऐसे दृश्य इनके लिए मनोरंजन का साधन बन जाएँ.
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