अक्सर ऐसा होता
है कि पढ़ने-लिखने का मन नहीं करता है. बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक तो रहा ही, एक आदत सी बनी हुई है. दिन भर चाहे जैसी
व्यस्तता रही हो मगर रात को सोने के पहले किसी न किसी किताब के कुछ पन्नों को पढ़े
बिना चैन नहीं मिलता है. कुछ ऐसा हाल लिखने को लेकर है. आज जबकि बहुतायत में लेखन
कार्य लैपटॉप पर ही होता है फिर भी कुछ पेज अपने हाथों से फाउंटेन पेन के द्वारा
रंगे ही जाते हैं. ऐसी आदत या कहें कि शौक होने के बाद भी विगत कुछ समय से
पढ़ने-लिखने से एक तरह की वितृष्णा सी होने लगी है. इसका कारण बहुत खोजने के बाद भी
समझ नहीं आ रहा है. जो थोड़ा-बहुत समझ में आया, उसके बाद तो यही समझ आया कि ज़िन्दगी तो पहले से ही जबरदस्त अनिश्चय भरी
हुई थी, ऐसे में कोरोना के आने ने और भी
उथल-पुथल मचा दी. इसके चलते किसी भी काम को बहुत अधिक मन से करने का, बहुत अधिक उत्साह से करने का मन नहीं करता है.
ऐसा ही कुछ लिखने-पढ़ने को लेकर भी हुआ है.
वैसे देखा जाये
तो जिस तरह की सामाजिक गति बनी हुई है, उसे देखते हुए
लगता भी है कि कोई फायदा नहीं किसी तरह से कुछ लिखने-पढ़ने का. समाज का एक-एक आदमी
अपनी चाल चलने में लगा हुआ है, अपने में मगन बना
हुआ है. बहुतों को तो समाज की समस्याओं से, लोगों की परेशानियों से कोई मतलब नहीं. लगभग सभी लोग किसी न किसी दायरे
में सिमटे हुए हैं. सभी लोग किसी न किसी खाँचे में फिट हैं. ऐसे में उनके लिए अपने
दायरे, अपने खाँचे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं. वे न
तो उससे बाहर आना चाह रहे हैं और न ही उसके बाहर देखना चाह रहे हैं. ऐसे लोगों के
कारण सामाजिक गतिशीलता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. यही प्रभाव अन्य लोगों को
भी नकारात्मकता की तरफ ले जाता है. कोरोना के समय ऐसी ही नकारात्मकता बहुत तेजी से
सबके बीच फैली थी. संभव है उसी नकारात्मकता ने हमारे दिल-दिमाग पर भी अपना असर
छोड़ा हो.
फ़िलहाल तो यह
एक आशंका है, इस पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है.
जल्द ही लिखने-पढ़ने से होने वाली ऊबन को दूर करने की कोशिश की जाएगी. यद्यपि
लिखना-पढ़ना आज, अभी भी बना हुआ है मगर जिस तेजी से, जिस नियमितता से यह पहले थी, वैसे नहीं है. खैर, जल्द ही सब सही होगा.
ऐसा कभी कभी हो जाता है। कुछ दिनों के लिए हवा पानी बदलने की कोशिश कीजिए। मेरे साथ जब ऐसा होता है तब मैं ऐसा ही करता हूं।
जवाब देंहटाएं