सामाजिकता
का ताना-बाना वर्तमान में किस कदर उलझ गया है, इस बात की कल्पना
कर पाना भी कई बार सम्भव सा नहीं लगता है. जीवन की आपाधापी में,
मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने की जद्दोजहद में इंसान रिश्तों की कदर
करना भूलता सा जा रहा है. रिश्तों का आपसी साहचर्य भी उसके लिए
विमर्श का, विवाद का, द्वंद्व का विषय बनता
जा रहा है. आये दिन कहीं न कहीं ऐसी घटनायें सामने आती हैं जो
इस पूरे सामाजिक ढांचे पर विचार करने को विवश करती हैं. हमारी
सामाजिक अवधारणा रिश्तों की जिस गरिमामयी डोर से पूरी सशक्तता के साथ कभी बँधी दिखाई
देती थी, आज वही अवधारणा टूट-टूट कर बिखरती दिख रही है. अधिसंख्यक
रूप में सम्बन्धों में मधुरता का अभाव, रिश्तों में कड़वाहट,
आपसी गरमाहट में कमी देखने को मिलती है. इस तरह की स्थितियाँ जहाँ एक
ओर बेचैन करती हैं वहीं दूसरी ओर सामाजिक शोधपरक अध्ययन को भी प्रेरित करती हैं.
अभी
कुछ दिनों पूर्व एक परिवार का उदाहरण सामने आया जिसके बाद सामाजिक, पारिवारिक विसंगति
को लेकर एक बहस शुरू होनी चाहिए थी मगर कहीं कुछ नहीं हुआ. मीडिया के द्वारा बस एक
खबर सामने आई, एक फोटो सामने आई और पूरी बात वहीं समाप्त सी कर दी गई. एक समृद्ध
परिवार की बुजुर्ग महिला सड़क किनारे एक छोटी सी जगह में मिली. मिली भी तब जबकि
उसमें साँसें न रह गईं. आश्चर्य का विषय यह है कि उसके रक्त सम्बन्धी परिजन उच्च
पदों पर भी आसीन हैं. इसके बाद भी उस बुजुर्ग महिला को बेसहारा जीवन गुजारने पर
मजबूर होना पड़ा. यह एकमात्र घटना नहीं जिसने सामाजिक, पारिवारिक मर्यादाओं को,
रिश्तों की गरिमा को लांछित किया है. पति द्वारा पत्नी की हत्या, पत्नी द्वारा
प्रेमी संग मिलकर पति, बच्चों की हत्या, बेटे-बेटी द्वारा प्रेम की खातिर अपने
परिजनों की हत्या, अपहरण जैसी घटनाएँ अब आये दिन पढ़ने-देखने को मिल जाती हैं.
इन घटनाओं के साथ-साथ लगभग जीवन-शैली की तरह हमारे आसपास पिता-पुत्र के बीच अनबन की, कभी भाई-भाई की रंजिश की, कभी अपनी ही बहिन-बेटी से कुकृत्य की, कभी अपनी ही गर्भस्थ-नवजात बेटियों को मौत देने की, कभी दहेज की खातिर बहुओं की मार डालने की, कभी जायदाद के लालच में हत्याओं के होने की, कभी प्रेम-विवाह के कारण वीभत्स कांड करने की दुर्दान्त खबरें चलती ही रहती हैं. ऐसे में हो सकता है कि उक्त घटना मन को विचलित न करे किन्तु एक मां के साथ उसके रक्त-सम्बन्धियों द्वारा, उसकी ही संतानों द्वारा इस तरह का अमानवीय व्यवहार करना विचारणीय है. विचार करना होगा कि समाज के पारम्परिक स्वरूप नष्ट होने से, उसकी सामाजिकता के नित विध्वंस होने से ऐसे गरिमामयी रिश्तों में भी टूटन, विचलन आयेंगे. इस टूटन का प्रभाव सिर्फ उसी एक परिवार पर, उन्हीं कुछ परिजनों पर नहीं पड़ता है बल्कि समग्र रूप में इसका प्रभाव समाज पर भी पड़ता है. हम सभी जानते-समझते हैं कि यह प्रभाव किसी रूप में सकारात्मक न होकर नकारात्मक ही होता है. परिवारों को, समाज को इस बढ़ती नकारात्मकता से बचाने के लिए सकारात्मक सोच वालों को आगे आना ही होगा.
विचारपूर्ण सवाल है यह, परन्तु इसका कोई समाधान नहीं सूझता। रिश्तों में मधुरता अब शायद ही कहीं दिखती है।
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