19 जून 2020

दोस्ती लहू बनकर रगों में बहती है

किसी घटना के सामने आने के बाद वैचारिकी उसी तरफ मुड़ जाती है या कहें कि तमाम विचार उसी घटना के इर्द-गिर्द भटकने लगते हैं. इन विचारों में पक्ष, विपक्ष जैसी स्थिति देखने को मिलने लगती है. विचार-विमर्श की दृष्टि से ऐसा होना गलत नहीं है मगर इसे लेकर विचार रखने वाले का आकलन, विश्लेषण करना उचित नहीं है. विगत दिनों की एक घटना के सन्दर्भ में लोगों द्वारा अकेलेपन, दोस्ती के बारे में बहुत सी बातें कही गईं. समाज में अभी भी दोस्ती, दोस्त जैसी पवित्र संकल्पना पर असमंजस जैसी स्थिति है. दोस्ती किसके साथ, कैसी, किस हद तक होती है, सच्ची दोस्ती किसे कहा जाता है, दोस्तों के बीच आपसी संबंधों का मानक क्या है इसे सभी लोग अपने-अपने हिसाब से तय करने लगते हैं.


इसी के सन्दर्भ में बहुत सारे विचारों को पढ़ा, अपने बहुत से मित्रों के विचार जाने. यहाँ किसी को गलत ठहराना हमारा मंतव्य नहीं है बल्कि दोस्ती के सन्दर्भों को खुद अपनी ही दृष्टि से समझना है. हमारे साथ दोस्ती की, दोस्तों की इतनी घटनाएँ हैं कि यदि उनका जिक्र करने बैठा जाये तो एक बड़ा सा ग्रन्थ तैयार किया जा सकता है. दोस्ती के, दोस्तों के इतने रूप देखे और उन्हीं के अनुसार दोस्तों को निर्धारित कर सके. दोस्त होने और परिचित होने में एक अंतर होता है, जिसे कई-कई बार महसूस किया. इस सन्दर्भ में एक घटना वर्ष 1996 की याद आती है. उस समय हम परास्नातक करके प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने में लगे थे.


स्नातक की पढ़ाई पूरी करके हम वापस घर, उरई आ गए थे. तब आज की तरह के संचार साधन नहीं थे कि सबसे सहजता से संपर्क बना रहे. इसके बाद भी बहुत से लोगों से पत्रों के द्वारा संपर्क बना हुआ था. इसमें हॉस्टल के बड़े-छोटे भाई और साथी भी थे. फिलहाल, इससे इतर बात ये कि उस समय तक हमारी मित्र-मंडली में बहुत ही सीमित दोस्त थे. परिचित बहुत थे मगर पारिवारिक रूप से सम्मिलित मित्रों की संख्या दहाई तक भी नहीं पहुंची थी. इसे ये भी कह सकते हैं कि खुद हमने ही इस संख्या को दहाई तक नहीं पहुँचाया था. हमारा इस बारे में मानना ये है कि पारिवारिक रूप से कोई सदस्य वही हो सकता है जिसका आपके परिवार में और जिसके परिवार में आपका ठीक उसी की तरह से हस्तक्षेप हो, उसी की तरह से स्थान हो.

उन्हीं दिनों अपने एक परिचित के साथ दोस्ती, दोस्तों के सम्बन्ध में कुछ बात चल रही थी. अचानक से उन्होंने हमारी तरफ सवाल दाग दिया कि तुम्हारे कितने दोस्त हैं? हमने अत्यंत सहज भाव से बिना कुछ सोचे-विचारे कह दिया तीन-चार. इस जवाब पर वे महाशय बहुत तेज हँसे और लगभग मजाक उड़ाने की स्थिति में हमसे बोले, आप अपना दायरा बढ़ाइए. यही मित्र लोग मुसीबत में काम आते हैं. उन्होंने आगे अपनी तारीफ में अपना विस्तीर्ण दायरा बताते हुए अपने मित्रों की संख्या सैकड़ों में बताई. जिसमें जनपद के कई नामचीन लोग भी शामिल थे. हमने महज मुस्कुरा कर उनकी बात को सुनते हुए अनसुना कर दिया. इसे शायद इत्तेफाक ही कहा जायेगा कि इस घटना के दस-पंद्रह दिन बाद ही वे महाशय एक मुसीबत का शिकार हुए और उनका विस्तार भरा दायरा किसी काम न आ सका. ये और बात है कि अपने छोटे से, सीमित दायरे के चलते हमने उनका काम करवा दिया.

उस घटना के सन्दर्भ में जब भी हम अपनी मित्र संख्या पर नजर डालते हैं तो वह बहुत सी सीमित दिखाई देती है. हमारा अपना सोचना, मानना है कि दोस्त वही है जो आपको परेशान न होने दे. परेशानी में न आने दे. किसी तरह की आवश्यकता पर वह सवाल-जवाब न करे. ये और बात है कि वो आपके किसी निर्णय पर समझाने का, उसका विश्लेषण करने का काम करे मगर जब बारी साथ देने की आये तो वह अपना लाभ-हानि न देखे. यह हमारा सौभाग्य ही है कि दोस्त वाकई वे मिले जिनको लेकर हम आज भी गर्व करते हैं. हमारे और कुछ मित्रों के बीच मेल-मिलाप का अन्तराल महीनों का होता है, फोन से बातचीत भी कई-कई दिनों तक नहीं होती है मगर दिल से दिल के तार वैसे ही मजबूत हैं जैसे किसी समय हुआ करते थे. वही दोस्ती आज हमारी रगों में लहू बनकर दौड़ती है.

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

4 टिप्‍पणियां:

  1. बात सही है, चाहे दोस्त कम हों पर पक्के दोस्त हों

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  2. दोस्ती के दायरे में तो बहुत हो सकते हैं लेकिन आपकी ज़रूरत के समय कोई काम आ सके वैसे तो मुश्किल से दो चार ही होते हैं। अपनी समस्याओं को भी उन्हीं दो चार के साथ बाँटना चाहिए। बाक़ी तो बस नाम के होते हैं। यही सच है। बहुत अच्छे विषय पर बहुत अच्छा लिखा आपने।

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  3. दोस्त वह है , जो रक्त संबंधों से ज्यादा विश्वसनीय होता है ।

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  4. अच्छे दोस्त मिलना और फिर दोस्ती कायम रहना ये किस्मत की बात है ,बहुत अच्छी पोस्ट है

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