प्यार, प्रेम, इश्क
ऐसे शब्द हैं जिन पर कहीं न कहीं चर्चा देखने-सुनने को मिल जाती है. कोमल भावनाओं
को अपने में समेटे इन शब्दों के साथ समाज बहुत ही कठोरता से अपना व्यवहार करता है.
प्यार को लेकर आये दिन हमें स्वयं हमारे कुछ मित्रों की तरफ से अनेक सवालों से दो-चार
होना पड़ता है. समझ नहीं आता है कि आखिर प्रेम को लेकर इतना संशय समाज में क्यों
है? प्यार को लेकर लोगों में भ्रम की स्थिति क्यों बनी हुई है? समझने वाली बात है
कि क्या किसी व्यक्ति को किसी एक व्यक्ति से प्रेम हो जाने के बाद किसी दूसरे से प्यार
नहीं होता? क्या
एक से अधिक लोगों से प्यार करना असामाजिक है? क्या प्यार की परिणति
विवाह होना चाहिए? यदि विवाह न हो सके तो क्या रो-रोकर मर जाना
चाहिए?
ऐसे विषय पर जो कहीं
न कहीं संवेदनशील भी है, भावनात्मक भी है वहाँ हमारी सोच ये है कि प्रेम वो पवित्र
अवधारणा है जो मन से संचालित होती है. प्यार का आधार किसी भी रूप में शारीरिकता नहीं
होना चाहिए वरन उसका निर्माण आत्मा, भावना, पवित्रता की आधारभूमि पर होना चाहिए. ऐसा
आज के समय में लोगों के लिए विश्वास करना भी कठिन है. जबकि असलियत यही है कि प्रेम
यही है. जो विश्वास से उपजता है, उसमे किसी तरह के अविश्वास की कोई जगह ही नहीं. यदि प्रेम में अविश्वास
किसी भी तरह से उपस्थित हुआ तो समझो कि वहाँ कभी प्रेम था ही नहीं. ऐसा किसी भी
प्यार करने वाले, किसी भी प्रेम करने वाले के साथ है. प्यार के सम्बन्ध में कहा
जाये तो हमारी नजर में प्रेम का उत्कर्ष वैवाहिक बंधन नहीं है वरन आपसी भावनाओं को
समझने और महसूस करने की स्थिति है.
बहुतेरे लोगों के लिए
आज भी प्रेम एक ऐसा विषय है जो एक व्यक्ति से शुरू होता है और उसी एक व्यक्ति पर समाप्त
हो जाता है. प्रेम कि यह समाप्ति या तो मिलन पर होती है अथवा बिछड़ने पर. इसे किसी
भी रूप में प्रेम का समग्र नहीं कहा जायेगा वरन यह तो प्रेम का एकाकी स्वरूप हुआ,
जहाँ बस मैं ही मैं है. प्रेम कभी मैं की बात नहीं करता है. और यही कारण है कि प्रेम
को किसी एक बिंदु पर नहीं बांधा जा सकता है? सोच कर देखे कोई भी कि ये कैसे संभव है कि किसी दिल से
प्रेम की, प्यार की बारिश हो रही है तो वह बस एक को ही उससे लाभान्वित करे? आखिर कैसे
संभव है कि प्रेम से ओतप्रोत दिल प्रेम की बारिश करे और एक के अलावा किसी अन्य को प्रेम-रस
से सराबोर न करे? असल में समाज में बहुतेरे लोगों के लिए प्रेम
पहली नजर से शुरू होकर देह के मिलन पर ठहर जाने की प्रक्रिया मात्र है. ऐसे लोगों के
लिए प्रेम एकाकी भाव को उत्पन्न करता है. यहाँ समझना होगा कि प्रेम और विश्वास का अपना
अंतर्संबंध है. प्रेम के साथ विश्वास का होना प्रेम की गंभीरता को, उसके एहसास को और विराट बना देता है. आखिर इसी देश में राधा-कृष्ण का मीरा-कृष्ण
का प्रेम ऐसे ही पावन-पूज्य नहीं है.
आज प्रेम क्षणिक आवेग
का नाम बनता जा रहा है. प्यार का अर्थ पहली नजर से लगाया जाने लगा है. प्यार को दैहिक
आकर्षण के आसपास केन्द्रित कर दिया गया है. प्रेम की पावन-पूज्य अवधारणा के आधार पर
हमारे समाज में उसे राधा-कृष्ण के रूप में पूजा भले जाए पर सहज रूप में स्वीकारा
नहीं जाता है. यही विभेद ही प्रेम को, प्यार को सशंकित करता है, संकुचित करता है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें