18 अगस्त 2019

मृत्यु और गुमनामी की रहस्यगाथा में समाया विराट व्यक्तित्व


कहते हैं कि जो आया है वो जायेगा ही मगर कोई आने वाला बजाय जाने के विलुप्त ही हो जाये तो? क्या ऐसा भी हो सकता है कि आने वाला विलुप्त हो जाये? यदि ऐसा होता भी है तो वह विलुप्त क्यों हुआ? यदि खुद अपनी मर्जी से विलुप्त नहीं हुआ तो फिर किसने विलुप्त करवाया? उसके खुद विलुप्त होने में, किसी के द्वारा विलुप्त करवाए जाने में लाभ किसका? विश्व की तमाम रहस्यगाथाओं से ज्यादा बड़ी और रहस्यमयी गाथा नेता जी के विलुप्त होने की गाथा है. यह रहस्यमयी इसलिए भी है कि नेता जी का व्यक्तित्व जितना विराट और चुम्बकीय रहा है, उसी अनुपात में या कहें उससे भी अधिक जनमानस के बीच उनकी गाथा तैरती रही है, आज के दिन यानि 18 अगस्त 1945 को उनके गायब हो जाने की. कोई कुछ भी कहे मगर तमाम सारे घटनाक्रम, अनेक तथ्य इशारा इस तरफ करते हैं कि आज के दिन हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में नेता जी की मृत्यु नहीं हुई थी.


दरअसल आज़ादी के आन्दोलन में सुभाषचंद्र बोस ब्रिटिश हुक्मरानों की आंख की किरकिरी बने रहे, साथ ही तत्कालीन कांग्रेस के लिए भी, गाँधी-नेहरू के लिए विरोधी रूप में प्रचारित रहे सो उनके हिस्से में केवल उपेक्षा, अपमान और विलुप्तता ही आई. उनकी मृत्यु को जिस विमान दुर्घटना में हुआ प्रचारित किया जाता है, कहा जाता है कि उस दिन कोई विमान दुर्घटना ताइवान में हुई ही नहीं. इसका ऐतिहासिक प्रमाण यह है कि 03 सितंबर 1945 को अमेरिकी सेना ने जापानी सेना को हराकर ताइवान पर क़ब्ज़ा कर लिया था. इसके बाद उसकी ख़ुफिया एजेंसी सीआईए ने अपनी रिपोर्ट में साफ़-साफ़ कहा था कि ताइवान में पिछले छह महीने से कोई विमान हादसा नहीं हुआ था. यहां यह गौर करने वाली बात है कि अपनी कथित मौत से दो दिन पहले 16 अगस्त 1945 को नेताजी वियतनाम के साइगॉन शहर से भागकर मंचूरिया गए थो जो उस समय रूस के क़ब्ज़े में था.

नेता जी के निजी गनर रहे जगराम भी दावा करते रहे हैं कि अगर विमान हादसे में नेताजी की मौत होती तो कर्नल हबीबुर्रहमान ज़िंदा कैसे बच जाते? क्योंकि वह दिन रात साये की तरह नेताजी के साथ रहते थे. रूस के इस घटनाक्रम में शामिल होने की चर्चा करते हुए डॉ० सुब्रह्मण्यम स्वामी दावा करते रहे हैं कि नेताजी की हत्या नेहरू के कहने पर रूसी तानाशाह जोसेफ स्तालिन ने करवा दी थी. डॉ० स्वामी के मुताबिक़, मेरठ निवासी श्यामलाल नेहरू के स्टेनो थे. नेताजी की मौत की ख़बर के पब्लिक होने के पहले नेहरू ने उन्हें आसिफ अली के घर बुला कर एक पत्र टाइप करावाया था, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली को लिखा था कि उनका वॉर क्रिमिनल रूस के क़ब्ज़े में है. नेता जी की मौत के रहस्य पर क़िताबें लिखने वाले और मिशन नेताजी के संस्थापक पत्रकार-लेखक अनुज धर ने कुछ साल पहले ही कह दिया था कि कांग्रेस और कांग्रेस का एक बंगाली नेता दोनों नहीं चाहते थे कि नेताजी के बारे में रहस्यों से परदा हटे. उन्होंने कड़ी मेहनत से लिखी क़िताबों में ताइवान सरकार के हवाले से दावा किया है कि 15 अगस्त से 05 सितंबर 1945 के दौरान कोई विमान हादसा नहीं हुआ था.

ऐसी चर्चाएँ बराबर बनी रहीं कि नेता जी रूस चले गए जहाँ से बाद में उनको भारत आने का सुरक्षित रास्ता प्रदान किया गया. भारत में उनके प्रवास की सर्वाधिक चर्चा फ़ैजाबाद के गुमनामी बाबा के रूप में रही हैं. यद्यपि बहुत से लोगों का मानना है कि नेता जी का व्यक्तित्व जिस तरह का था वैसे में संभव नहीं कि वे गुमनामी में अपना जीवन व्यतीत कर देते. इसके बाद भी सम्बंधित व्यक्ति को लेकर लोगों में विश्वास बना हुआ है कि गुमनामी बाबा और कोई नहीं बल्कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ही थे. इसके पीछे लोग कई कारण गिनाते हैं. लोगों का कहना है कि अपने आसपास गोपनीयता बनाकर रहने वाला यह व्यक्ति कौन था? अगर यह व्यक्ति एक साधारण संत था तब वह फर्राटेदार अंग्रेजी और जर्मन कैसे बोलता था? उनके पास दुनिया भर के नामचीन अखबार, पत्रिकाएं, साहित्य, सिगार कहाँ से आती थी? यदि वह व्यक्ति नेता जी नहीं तो उसके पास नेताजी से जुड़ी चीजें कैसे आईं? गुमनामी बाबा का अंतिम संस्कार सैन्य संरक्षित क्षेत्र में क्यों हुआ? उनकी मृत्यु के बाद पूरा प्रशासनिक अमला, लोकल इंटेलीजेंस यूनिट समेत दूसरे लोग क्यों सक्रिय रहे? जब लोगों ने और समाचार पत्रों ने उनके नेता जी होने का दावा किया तो प्रशासन ने इसका खंडन क्यों नहीं किया? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो नेता जी के रहस्य को और गहरा देते हैं. गुमनामी बाबा के निधन के बाद उनके नेताजी होने की बातें फैलने लगीं तो नेताजी की भतीजी ललिता बोस कोलकाता से फैजाबाद आईं. वे गुमनामी बाबा के कमरे से बरामद सामान देखकर यह कहते हुए फफक पड़ी थीं कि यह सब कुछ उनके चाचा का ही है. इसके बाद स्थानीय लोगों ने आन्दोलन करना शुरू कर दिया.

गुमनामी बाबा के सामानों से मिला नेता जी का चित्र 

लम्बे समय तक चले सामाजिक और न्यायिक प्रयासों के बाद मामले की सुनवाई करते हुए 31 जनवरी, 2013 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया था कि गुमनामी बाबा के सामान को संग्रहालय में रखा जाए ताकि आम लोग उन्हें देख सकें. 

लखनऊ बेंच ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा था-
1945 में एक प्लेन क्रैश में मारे गए नेताजी की मृत्यु के संदर्भ में विभिन्न इतिहासकारों और पत्रकारों की खोजबीन को खंगालने के बाद निष्कर्ष निकला है कि प्लेन क्रैश में नेताजी की मृत्यु हुई या नहीं, इस बारे में निश्चित राय कायम नहीं की जा सकती, पर यह तथ्य निर्विवाद और सर्वविदित है कि नेताजी स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे सेनानी थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में सभी के दिल में आजादी का जज्बा भर दिया था.
ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की स्मृति या उनकी धरोहर आने वाली नस्लों के लिए प्रेरणादायक है. अगर फैजाबाद में रहने वाले गुमनामी बाबा, जिनके बारे में लोगों का विश्वास था कि वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस हैं और उनके पास आने-जाने वाले लोगों व उनके कमरे में मिली तमाम वस्तुओं से इस बात का तनिक भी आभास होता है कि लोग गुमनामी बाबा को नेताजी के रूप में मानते थे तो ऐसे व्यक्ति की धरोहर को राष्ट्र की धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा जाना चाहिए. 

नेता जी की मृत्यु की जांच से सम्बंधित बने आयोगों की अपनी-अपनी रिपोर्ट्स रही हैं. जिस तरह का रहस्य, जिस तरह की गोपनीयता नेता जी की मृत्यु को लेकर बनाई जाती रही है, वैसी ही गुमनामी बाबा के निधन और उनके अंतिम संस्कार को लेकर बनाई गई. यह सब इस रहस्य को और गहरा करता है. अंतिम सत्य क्या है यह तो उसी सत्य को भोगने वाला ही जानता है मगर एक सत्य यह है कि जनमानस को विश्वास है कि नेता जी की मृत्यु आज के दिन बताई जाने वाली तथाकथित विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी. उनकी मौत का रहस्य अभी भी रहस्य है. जब तक यह रहस्य उजागर नहीं होता तब तक उनकी मौत को स्वीकारना नेता जी के अस्तित्व को, उनकी विराटता को नकारना ही होगा. आज के दिन वे विलुप्त हुए हैं, मृत नहीं और यह भी अपने आपमें परम सत्य है कि विलुप्त होने वाले मरते नहीं वरन अमरत्व को प्राप्त कर जाते हैं. महाकाल बन जाते हैं.
जय हिन्द

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