समाज
में प्रेम-मोहब्बत की जितनी बातें होती हैं उतने ही विरोधात्मक कदम इसे लेकर उठाये
जाते हैं. समाज में स्नेह-बंधुत्व को लेकर जितनी बातें की जाती हैं उतनी ही नफरत
फैलती दिखती है. समाज में जितना प्रयास मधुभाषी होने को लेकर चलते हैं व्यक्ति
उतना ही कटुतापूर्ण वार्तालाप करता दिखाई देता है. आखिर ऐसा क्या है कि समाज में
जितना भी कार्य सकारात्मकता को लेकर होता दिखता है, नकारात्मकता उतनी ही तीव्रता
से अपना काम करते दिखती है? अब तो ऐसे किसी विषय पर लिखने का मन ही नहीं होता है.
प्रेम जैसे विषय को भी संकीर्णता में घेर कर उसे भी देह के आसपास केन्द्रित कर
दिया गया है. यही स्थितियाँ स्नेह, बंधुत्व, समानता, भाईचारे को लेकर बनी हुई हैं.
समाज में पूर्व में क्या होता रहा, क्यों होता रहा, किसके द्वारा संचालित होता रहा
इसका अपना ही इतिहास है. आज के दौर में बार-बार अपने अतीत को खींचकर उसी पर कुतर्क
करना कहीं से भी उचित कदम महसूस नहीं होता है. ऐसा करना वर्तमान को बाधित करना और
आगे बढ़ने के अवसरों पर कुठाराघात करने जैसा होता है. सबकुछ जानने-समझने के बाद भी
ऐसा हो रहा है.
क्या
यहाँ भी आज की तरह यही कहकर शांत हो जाना चाहिए कि जो हुआ सो हुआ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें