अन्तर्राष्ट्रीय
महिला दिवस का आना हुआ नहीं कि कार्यक्रमों की औपचारिकता का निर्वहन प्रारम्भ हो गया.
जगह-जगह संगोष्ठियों,
सभाओं, भाषणों, रैलियों आदि
की औपचारिकता निभाई जाने लगी है. सरकारी संगठनों के साथ-साथ उन स्वयंसेवी संगठनों की
मजबूरी भी है जो महिला-सशक्तीकरण के लिए कार्य कर रहे हैं कि वे इस दिन पर कार्यक्रम
करें, सिर्फ करें ही नहीं अवश्य ही करें. यदि भाषणों,
रैलियों, कार्यक्रमों से ही विकास होना सम्भव होता
तो हमारा मानना है कि सबसे अधिक विकास हम भारतवासियों ने ही किया होता. आये दिन की
भाषणबाजियों और सभाओं के बाद भी विकास वहीं का वहीं है, नारियों
की स्थिति वहीं की वहीं है, कन्या भ्रूण हत्या की स्थिति वहीं
की वहीं है, स्त्री-पुरुष लिंगानुपात वहीं का वहीं है. केवल भाषणों
से नारी की स्थिति को सुधारा नहीं जा सकता है, यह चाहे पुरुषों
द्वारा किया जा रहा हो या फिर खुद महिलाओं द्वारा. भाषणों में विकास के आयाम खोजने
की बजाय यह खोजा जाता है कि एक और विभेद स्त्री-पुरुष के बीच कहाँ से पैदा किया
जाये. यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि कैसे स्त्रियों को शोषित बताया जाये.
कैसे स्त्री को पुरुष से ज्यादा संघर्ष करने वाली बताया जाये. कैसे साबित किया
जाये कि एक बेटी के रूप में एक स्त्री अपने माता-पिता का ख्याल अधिक रखती है बजाय
एक बेटे के.
बहरहाल, कुछ
बिन्दु ऐसे है जिन पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार अवश्य होना चाहिए.
वंश-वृद्धि
की लालसा में पुत्र प्राप्ति की चाह रखने वाले बतायें कि स्वामी विवेकानन्द, शहीद भगत सिंह,
रानी लक्ष्मीबाई, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर
आजाद आदि अनेक महापुरुषों का नाम किस लड़के के कारण चल रहा है?
बेटे की
चाह में लड़की को मारने वाले अपने लड़के के विवाह के लिए लड़का कहाँ से लायेंगे?
इसी प्रकार
से स्त्री-पुरुष लिंगानुपात कम होता रहा तो आने वाले समय में होने वाली स्त्री हिंसा
की भयावहता को कौन रोकेगा?
बराबर
का दर्जा सिद्ध करती स्त्री आने वाले समय में कम संख्या के कारण अपनी खरीद-बिक्री को
कैसे रोक सकेगी?
(आज भी कई घटनायें इस तरह की प्रकाश में आईं हैं जहाँ कि परिवारों में
पुरुष स्त्रियों को खरीद कर ला रहे है)
लड़कियों
की लगातार गिरती संख्या से क्या समाज में अनाचार की और विकट स्थिति पैदा होने वाली
नहीं है?
सवाल बहुत
हैं पर जवाब.......??? जवाब शायद हम सभी खोजना भी नहीं चाहते क्योंकि यही काम मुश्किल है. सरल
काम है गोष्ठी करवा लेना, रैली निकलवा लेना, किसी कार्यक्रम का आयोजन करवा लेना.
तो क्या हो? जवाब न खोजे जाएँ? ऐसा भी नहीं है. जवाब हमें ही देना होगा, जवाब हमें ही खोजने होंगे. मात्र किसी दिवस की औपचारिकता को पूरा करने के
लिए ही आवाज उठाना और फिर शान्त हो जाना नैतिक नहीं है. समाज के सभी वर्गों को प्रयास
करने होंगे, एकसाथ करने होंगे. पुरुष-स्त्री को आपसी विभेद को
दूर करना होगा. क्या आधुनिकता का, ज्ञान का, अहम का रंग अपने ऊपर चढ़ा चुके स्त्री और पुरुष (दोनों को विचारना होगा) इस
बात को समझेंगे?
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