07 दिसंबर 2018

हिंसा का मूल जनाक्रोश या मानवीय स्वभाव

अनादिकाल से समाज ने शांति, अहिंसा, सौहार्द्र, स्नेह आदि-आदि सिखाने का काम किया है और उसी के सापेक्ष समाज ने ही अशांति, हिंसा, वैमनष्यता, बैर आदि सीखने का काम किया है. यहाँ विचारणीय है कि इंसान को लगातार प्रेम, दया, करुणा आदि का पाठ पढ़ाया जाता रहा है. उसे समझाया गया कि हिंसा गलत है. उसको कदम-कदम पर बताया गया कि सबको आपस में सद्भाव से रहना चाहिए. उसे कभी हिंसा करनी नहीं सिखाई गई. उसे नहीं सिखाया गया कि बैर भावना रखनी है. उसे नहीं पढ़ाया गया कि हत्या कैसे करनी है. इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि उसे जो कुछ सदियों से पढ़ाया जाता रहा उसको कायदे से नहीं सीख पाया. इसके सापेक्ष जो कुछ किसी ने नहीं सिखाया वह उन कामों को तीव्रता से करने भी लगा है.


क्या कभी इस पर विचार किया गया कि इंसानी स्वभाव के मूल में क्या है कि उसे सदियों से प्रेम, सौहार्द्र का पाठ पढ़ाना पड़ रहा है मगर वह सिर्फ और सिर्फ हिंसा की तरफ ही बढ़ता जा रहा है? आये दिन खबरें मिलती हैं मासूम बच्चियों के साथ दुराचार की, उनकी हत्या की. आये दिन देखने में आ रहा है कि प्रशासनिक अधिकारियों पर हमले किये जा रहे हैं, उनकी जान ले ली जा रही है. लगभग नित्यप्रति की खबर बनी हुई है किसी की हत्या, कहीं लूट, कहीं अपहरण, कहीं मारपीट. इसे महज दो पक्षों के बीच की स्थिति कहकर विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए. दरअसल हिंसा, अत्याचार, क्रूरता इंसानी स्वभाव का मूल है. इसे किसी समाजविज्ञानी, मनोविज्ञानी की दृष्टि से समझने की आवश्यकता तो है ही साथ ही सामान्य इंसान के रूप में भी इसे देखा-समझा जाना चाहिए. यदि पारिवारिक माहौल में देखा जाये तो छोटे-छोटे बच्चों को अकारण ही जमीन पर रेंगने वाले कीड़े-मकोड़ों को मारते देखा जा सकता है. मोहल्ले की गलियों में जरा-जरा से बच्चों को गलियों में टहलते जानवरों के पीछे डंडा लेकर उन्हें भगाना, मारना सहज रूप में दिखाई देता है. इंसानी जीवनक्रम में मारपीट, लड़ाई, गाली-गलौज सहज रूप में उम्र बढ़ने के साथ-साथ दिखाई देने लगती है. इस व्यवहार में कमी न होकर वृद्धि ही होती रहती है.

समाज में जहाँ सम्बन्ध स्वार्थ पर आधारित होने लगे हों; लोगों की प्रतिष्ठा उसके पद, उसके आर्थिक स्तर से होने लगी हो वहां आपस में खाई बनना स्वाभाविक है. इसके चलते लोगों में आक्रोश पनपना स्वाभाविक है. यही जनाक्रोश जरा सी हवा मिलते ही हिंसात्मक हो उठता है. भीड़ को धार्मिकता नजर आने लगती है. इस जनाक्रोश में हिंसक मन-मष्तिष्क भूल जाता है कि जिसके विरूद्ध वे सब हिंसक होने जा रहे हैं वह भी इसी समाज का हिस्सा है. वह भी उन्हीं की तरह किसी परिवार का अंग है. हिंसक भीड़ वर्षों से रटती आ रही प्रेम, स्नेह, अहिंसा, शांति, सौहार्द्र का पाठ भूल जाती है. उसके दिल-दिमाग में उसका मूल स्वभाव जानवर बनकर जाग उठता है.

वर्तमान समाज इतने खाँचों में विभक्त हो चुका है कि उसे मानवीय समाज कहने के बजाय कबीलाई समाज कहना ज्यादा उचित होगा. प्रत्येक वर्ग के अपने सिद्धांत हैं, अपने आदर्श हैं, अपने विचार हैं, अपनी विचारधारा है. सबकी विचारधारा, सबके आदर्श दूसरे की विचारधारा, आदर्श से श्रेष्ठ हैं. ऐसे में श्रेष्ठता, हीनता का बोध भी इंसानी स्वभाव पर हावी हो रहा है. आक्रोश की छिपी भावना के साथ-साथ स्वयं को श्रेष्ठ समझने और दूसरे को सिर्फ और सिर्फ हीन समझने की खुली भावना समाज में विकसित हो चुकी हो तब हिंसात्मक गतिविधियों को देखने-सहने के अलावा और कोई विकल्प हाल-फ़िलहाल दिखाई नहीं देता है.

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