तमाम सारे विदेशी कार्यक्रमों की धूम-हंगामे
के बीच एक-दो भारतीय पर्व ऐसे भी हैं जो बहुत शोर-शराबे से न सही मगर मना लिए जाते
हैं. इनके मनाये जाने के पीछे सोशल मीडिया की भूमिका बहुत बड़ी है. किसी भारतीय
पर्व के एक-दो दिन पहले से कुछ बैनर, कुछ चित्र, कुछ विचार सोशल मीडिया पर इधर से
उधर तैरने लगते हैं और इसी धार में बहुतेरे लोग तैराकी सीख लेते हैं. किसी समय
विद्यालयों, महाविद्यालयों में गुरु पूर्णिमा के नाम पर संस्कारित आयोजन हो जाया
करते थे, जो अब नितांत अवकाश में बदल गए हैं या फिर शुभकामनायें देने भर तक. संभव
है कि गुरु पूर्णिमा की बधाइयाँ, शुभकामनायें इधर से उधर करते बहुतेरे लोगों को
जानकारी भी न हो कि गुरु पूर्णिमा किस कारण से मनाई जाती है. वैसे आज के समय में
आधुनिक गुरु गूगल बाबा ने सबकुछ सहज सा कर दिया है. यहाँ आपने जिज्ञासा रखी, उधर
उनका समाधान आया. अब ये समाधान कितना सही, कितना गलत ये आप पर निर्भर करता है. इसी
सही-गलत के बीच फंसने से पहले गुरु पूर्णिमा पर प्रकाश डालते चलें.
आषाड़ मास की पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा के
नाम से जाना जाता है. कृष्ण द्वैपायन व्यास जी का जन्म इसी दिन हुआ था. उनके द्वारा
महाभारत की रचना की गई थी. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और ऐसा माना जाता है कि
चारों वेदों की रचना उन्हीं के द्वारा की गई थी. इसी कारण से उनको वेदव्यास के नाम
से भी जाना जाता है. गुरु-शिष्य परंपरा में उनको आदिगुरु माने जाने के कारण उनके सम्मान
में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है. इस पर्व के सन्दर्भ
में ऐसी मान्यता है कि प्राचीनकाल में जब शिष्य अपने गुरु से पूर्ण शिक्षा प्राप्त
कर लेता था, उसके
बाद वो शिष्य श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर इसी दिन अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी
सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था. वर्तमान में प्राचीन गुरुकुल पद्धति
चलन में न होने के बाद भी गुरुपूर्णिमा का महत्व कम नहीं हुआ है. आज भले ही शैक्षिणक
संस्थानों में पारंपरिक रूप से शिक्षा दी जा रही हो किन्तु इनमें आज भी इस दिन गुरुजनों
को सम्मानित किया जाता है.
गुरु, शिक्षक से सम्बंधित अनेक
सूक्तियाँ, श्लोक, सार-वाक्य हमारे आसपास मिल जाते हैं. व्यक्ति इनको न केवल सुनता
आ रहा है वरन आत्मसात भी करता रहा है. ये और बात है कि वर्तमान में सामाजिक भटकाव की
स्थिति में बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों को भी समझ नहीं आ रहा है कि वे क्या कर
रहे हैं. इसे भटकाव कहें या फिर सामाजिक विसंगति कि गुरुपूर्णिमा का आयोजन करने वाले
देश में गुरुओं द्वारा दी गई शिक्षा को विस्मृत कर दिया गया है. आज शिक्षा के नाम
पर बाजार उपलब्ध है. संस्थानों के नाम पर दुकानें बनी दिख रही हैं. शिक्षकों को
राजनीति का, नेतागीरी का पर्याय माना जाने लगा है. गुरु शब्द की गरिमा अब उसको ताना
मारने के रूप में, गाली देने के रूप में बदल गई है. गुरु का, शिक्षक का सम्मान जिस
तरह से कभी समाज में बना हुआ था, अब वैसा सम्मान देखने को कम ही मिलता है. अभिभावक
हों या फिर स्वयं विद्यार्थी उसके लिए शिक्षक का अर्थ मुफ्त में वेतन लेने वाला हो
गया है. इसके पीछे यदि सामाजिकता का, मानसिकता का पतन जिम्मेवार है तो खुद शिक्षक
भी किसी न किसी रूप में न सही पूरी तरह, तो आंशिक ही, मगर जिम्मेवार है. स्वार्थलिप्सा
में दुकानों, बाजार में बदल चुके शिक्षा क्षेत्र में बहुतेरे शिक्षकों द्वारा
विद्यार्थियों के साथ दोहरा व्यवहार किया जाता दिखता है. उनके साथ पक्षपात करने
जैसी स्थिति भी दिखाई देती है. इसमें अब तो शर्म भी महसूस नहीं होती, न अभिभावक
को, न विद्यार्थी को और न ही बहुतेरे शिक्षकों को कि नक़ल, पक्षपात जैसी स्थितियाँ
आपसी सहमति से बनायी जाने लगती हैं.
वैसे शर्म अब इसलिए भी नहीं आती क्योंकि सभी
ने अपनी शर्म को सोशल मीडिया के द्वारा समाप्त कर लिया है. गुरुपूर्णिमा हो, शिक्षक दिवस हो, स्वतंत्रता दिवस हो अथवा कोई अन्य राष्ट्रीय महत्त्व का दिन, सभी कुछ तो आजकल सोशल मीडिया पर मना लिए जाते हैं. गुरुजनों को विस्मृत किया
जाने लगा है. शिक्षकों और शिष्यों में भी सामाजिक प्रस्थिति का अंतर दिखाई देने
लगा है. आज फिर गुरु पूर्णिमा है. सोशल मीडिया पर दिखाई दे रहा है कि ऐसे बहुत से
शिष्य गुरुओं को शुभकामनायें देने में लगे हैं जो वास्तविक जीवन में उनको गाली
देने से भी नहीं चूकते हैं. उच्च शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत होने के कारण ऐसे
आधुनिक शिष्यों से आये दिन संपर्क होता रहता है जिनकी निगाह में शिक्षकों की महत्ता
न के बराबर है. अपने गुरुओं के सम्मान की खातिर, उनकी शिक्षाओं
पर अमल करने की खातिर हमें खुद ही विचार करना होगा कि आखिर विश्वगुरु की उपाधि पाए
देश में गुरुजनों की स्थिति, प्रस्थिति में इतनी गिरावट आई कैसे?
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