27 जनवरी 2018

कुछ कहता है गाँव का वो बूढ़ा घर

यादें जिंदगी को तरोताजा रखने का काम करती हैं बशर्ते इन्सान उनमें खुशियाँ तलाशने का काम करे. यादों में खुशियों के साथ-साथ ग़मों का भी समावेश होता है और इन्सान जब यादों के सफ़र पर निकलता है तब यह उसकी मानसिकता पर निर्भर करता है कि वह खुशियों में या गम में रहना चाह रहा है. आज यादों का पिटारा लेकर गाँव की यात्रा पर जाना हुआ. ऐसा नहीं कि गाँव की ये कोई पहली यात्रा थी. इससे पहले भी कई बार गाँव जाना हुआ. गाँव में खूब रहना हुआ. गाँव में घूमना-फिरना भी हुआ. पिछले एक दशक से अधिक समय में जब-जब गाँव जाना हुआ, तब-तब वहां से जुडी यादें वहां पहुँचने के पहले दिल-दिमाग पर हावी होकर पुरानी बातों का स्मरण करवा देती.


आज गाँव जाने का अवसर कुछ धार्मिक, पारिवारिक कृत्य से जुड़ा हुआ था. पारिवारिक धार्मिक मान्यताओं से जुड़े कार्यों को पूरा करवाने के बाद गाँव में अपने पैतृक मकान के दर्शन करने चल दिए, समस्त परिजनों संग. कुछ वर्षों पहले परिवार में शामिल हुए कुछ नए सदस्यों, जो परिवार की बहुओं के रूप में शामिल हुई थीं और कुछ मासूम से नन्हे सदस्य जो अपने जन्म के द्वारा परिवार से जुड़े, उन लोगों का अपने गाँव जाने का, गाँव के पैतृक मकान के दर्शन का पहला अनुभव था. पिछले एक दशक से अधिक का समय हो चूका है जबकि पैतृक आवास को निर्जन छोड़ दिया गया है. अपने परिजनों के चले जाने के एहसास ने ईंट-गारे के उस मकान को भी आहत किया होगा, तभी धीरे-धीरे उसने अपने आपको कमजोर काना शुरू कर दिया. इसके बाद भी उसके आँगन, उसकी दीवारें, उसकी छत, उसका मैदान, उसके पेड़-पौधे बराबर उन दिनों की याद दिलाते रहे जबकि हम सब बालरूप में उस घर की जमीन पर धमा-चौकड़ी मचाया करते थे.



घर की जर्जर होती दीवारों को छूकर उसी एहसास को अपने अन्दर उतारने की कोशिश हरबार की जाती थी, आज भी की गई. हर बार लगता था कि वो बूढ़ा घर, जिसने हमारे दादा, परदादा को अपने आगोश में खेलते देखा है कुछ कहना चाहता है. उसके निःशब्द संबोधन को, स्वर को सुनने की, समझने की चेष्टा हर बार की गई. समझने के बाद भी, उसका कहा सुनने के बाद भी उस पैतृक आवास के प्रति अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन नहीं कर सके. अभी भी उसके प्रति एक जिम्मेवारी है मगर अधूरी ही बनी हुई है. कोशिश होगी कि जल्द ही उस जर्जर होती काया को कुछ एहसासों के साये में, यादों की सुखद स्मृतियों में फिरसे सजीव किया जाये ताकि कल को उस आवास के आँगन में खड़े होकर यादों के जंगल में विचरण करते समय बबूल के वे काँटे न चुभें जो आज उस आँगन में बेतरतीब से खड़े हो चुके हैं.

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