21 जनवरी 2018

वो बचपन का मेला आज भी याद आता है

कल बसंत पंचमी का पर्व है. आज शाम बिटिया रानी के लिए कल के लिए फल-फूल लाने के लिए बाजार की तरफ जाना हुआ. रोज की तरह उसी मंदिर के सामने से गुजरना हुआ जहाँ हम अपने बचपन में बसंत पंचमी के मेले में आया करते थे. यूँ तो उस मंदिर के सामने से जितनी बार गुजरना होता है, बचपन की बसंत पंचमी याद आ ही जाती है. उस समय मेले में किया जाता हुड़दंग भी याद आ जाता है. दोस्तों, भाइयों के साथ की गई शैतानियाँ भी याद आ जाती हैं. आज जबकि बाजार जाने का मंतव्य बसंत पंचमी से जुड़ा हुआ था, उस मंदिर के सामने से निकलना विशेष रूप से उसी समय में ले गया. अपने बचपन की अनेक घटनायें याद आ गयीं. घर के पास बना हुआ नरसिंह भगवान का मंदिर तब भी था, आज भी है. मंदिर आज तो बहुत ही अच्छी दशा में है जो हमारे बचपन में बहुत ही जीर्ण-शीर्ण स्थिति में हुआ करता था. उस मंदिर के हाते में ही एक छोटा सा मेला लगा करता था. उस समय मेले की तैयारियाँ कई-कई दिनों पहले से शुरू हो जाया करती थीं. कई-कई झूले, कई-कई दिन पहले से आकर लग जाया करते थे. आज शाम देखा तो मेले जैसी कोई तैयारी वहाँ दिखाई नहीं दी.



उस समय मेले में कई छाटे-बड़े झूले, बहुत सी छोटी-छोटी दुकानें आया करतीं थी. दुकानें आज भी लगतीं हैं, पिछले साल तक भी दुकानें लगीं मगर इनकी संख्या में लगातार कमी होती जा रही है. दुकानें कमोबेश वैसी ही हैं, जैसी कि उस समय हुआ करती थीं. उस समय भी महिलाओं के साज-श्रृंगार से सम्बन्धित सामग्री की दुकानें अधिक हुआ करतीं थीं, आज भी हैं. बच्चों के खेल-खिलौने से सम्बंधित दुकानें तब भी हुआ करती थीं, आज भी हैं. आज यदि कुछ फर्क आया है तो खरीददारी और बिकवाली का. बहरहाल ये तो आधुनिकता का तकाजा है. आज मेले के लिए सिर्फ एक झूले वाले को तैयारी करते देखा तो लगा कि अब मेले को लेकर किसी तरह का उत्साह नहीं बचा है. हाँ, कल अवश्य ही कुछ दुकानदार अपने व्यवसाय की परम्परा का पालन करने आयेंगे ही, तो कुछ इसी बहाने भगवान की सेवा करने का बहाना निकाल लेंगे. हमें बहुत अच्छी तरह याद है कि उस समय मेले का रूप छोटा सा हुआ करता था किन्तु उसमें रौनक बहुत रहती थी. बच्चों के अतिरिक्त बड़ों में भी उत्साह देखते बनता था. मंदिर के दर्शन बड़ों के लिए आवश्यक होता था तो हम बच्चों के लिए भगवान के दर्शन प्रसाद पाने का बहाना हुआ करता था. मंदिर के पुजारी के हाथों मिलती मिठाई, फल आदि में एक अजब सा स्वाद होता था जो किसी भी भगवान में आस्था न रखे बिना भी बहुत मजेदार हुआ करता था.


इधर बहुत सालों से उस मंदिर में जाना नहीं हुआ. मंदिर लगातार आधुनिकीकरण की तरफ बढ़ता जा रहा है. पिछले वर्षों में कुछ दुकानदारों से बात करने पर पता चला कि अब मंदिर परिसर पर कुछ अवांछित तत्वों का कब्जा हो गया है जो दुकान का किराया बसूलने लगे हैं. इधर लोगों का ध्यान भी पारम्परिक पर्वा-त्योहारों से अलग हट कर कुछ विशेष करने की तरफ जा रहा है. बसंत पंचमी का महत्व कम से कम तब तक तो लोगों के लिए नहीं है जब तक कि उसे किसी विदेशी द्वारा प्रचारित प्रसारित न किया जाये. किसी कार्ड बनाने वाली कम्पनी से इस उपलक्ष्य में ग्रीटिंग कार्ड न बेचना शुरू किये जाये. जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक हमारे बचपन के प्यारे से मेले में रौनक नहीं होगी, उस छोटे से मंदिर के प्रसाद में अपनत्व की महक नहीं होगी. क्या कभी ऐसा होगा कि हम फिर से बसंत पंचमी को लगने वाले इस मेले में बचपन की तरह झूले में झूल सकेगे? मंदिर के पुजारी से बिना किसी आस्था के सिर्फ प्रसाद लेने के लिए मंदिर जाया करेंगे?

2 टिप्‍पणियां:

  1. बसंत पंचमी के आगमन और प्रेम के मनुहार का यह मौसम सुहावना होता है
    बहुत सुंदर पोस्ट
    हार्दिक शुभकामनाएं

    सादर

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