इस समय किसी भी गली में निकल जाइये, हर
तरफ दो तरह के विशेषणों से रँगे लोग दिखाई दे रहे हैं. एक तो प्रबल दावेदार और
दूसरे वरिष्ठ समाजसेवी. जी हाँ, जबसे निकाय चुनाव का बिगुल फुंका है तबसे इन दो
विशेषणों की बहुत ज्यादा माँग हो गई है. जिसे देखो वो अपने होर्डिंग, बैनर,
प्रचार-सामग्री में इन्हीं दो विशेषणों को जोड़े सभी से वोट देने की गुहार लगा रहा
है. अलग-अलग दलों, अलग-अलग व्यक्तित्वों वाले लोग, जिनकी असलियत पूरे शहर को मालूम
होती है वे जब अपने आपको इन विशेषणों के द्वारा चुनावी मैदान में उतारने लायक
बनाने लगते हैं तो बरबस हँसी छूट जाती है. सैकड़ों प्रत्याशियों की भीड़ में सबके सब
प्रबल-सबल ही दिखाई देते हैं, कोई निर्बल तो दिखाई ही नहीं देता है. इसके ठीक उलट
बहुतेरों की प्रबलता की स्थिति ये है कि कहिये उन्हें उनके लक्षणों, कारनामों के
चलते उनके घर के लोग ही वोट न दें. इनकी प्रबलता का आधार कुछ भी नहीं है मगर सबकी
देखादेखी अपने आपको सबसे प्रबल बताना ही है. ऐसे लोगों को लगता है जैसे प्रबल
लिखवा देने भर से ही मतदाता अपने आप जाकर इनको वोट दे आएगा.
इस प्रबल विशेषण की तरह जिस तरह से
वरिष्ठ समाजसेवी का तमगा लोगों ने खुद लगाना शुरू कर दिया है. ऐसे लिखने के पीछे
इन लोगों का मकसद मतदाताओं को ये दिखाना है कि निकाय चुनाव के लिए सिर्फ वही
एकमात्र व्यक्ति ही सबसे योग्य है. एकमात्र वही है जो वरिष्ठ भी है, समाजसेवी भी
है. अब इनकी वरिष्ठता को देखा जाये तो खुद वरिष्ठ को हँसी छूट जाए. आखिर
पच्चीस-तीस साल के लोग किस दृष्टि से वरिष्ठ हो गए, पता ही नहीं चल पाया? ये भी
पता नहीं चल पाया कि समाज के बीच मात्र दो-तीन महीने पेड न्यूज़ के चलते सुर्खियाँ
बटोरने वाले कब वरिष्ठ बन गए? अब वरिष्ठ लिख रहे हैं तो बन भी गए ही होंगे. हो
सकता है कि इनकी वरिष्ठता का आधार प्रति सेकेण्ड के आधार पर निर्धारित किया गया
हो. यदि ऐसा है तो ये लोग अवश्य ही वरिष्ठ हो जायेंगे. इनका वरिष्ठ होना किसी
अनुभवजन्य स्थिति पर आधारित नहीं है. इनकी वरिष्ठता का आधार इनकी आयु नहीं, इनके
कार्य नहीं वरन समाजसेवा है. और इसमें भी वो समाजसेवा है जो इनके द्वारा कभी की भी
नहीं गई. आपको आश्चर्यचकित करने वाला बिंदु लग रहा होगा ये मगर ये उतना ही सत्य है
जितना कि सत्य पूरब से सूरज का निकलना होता है.
इनकी समाजसेवा का आधार भी अजब किस्म का
है. इन वरिष्ठ समाजसेवियों द्वारा समाज के लिए एक सामान्य सा काम भी नहीं किया गया
है. समाज के किसी कमजोर, मजबूर के लिए एक कदम भी आगे न चले होंगे. किसी शोषित को
बचाने के लिए अपना हाथ कभी न बढ़ाया होगा. इन सबके बाद भी ये सब गर्वीले भाव से
वरिष्ठ समाजसेवी हैं. होना भी चाहिए क्योंकि इन सबको फोटो खिंचवाने की कला मालूम
है. इन सबको सेल्फी लेने का कारनामा दिखाना आता है. इन सबको सोशल मीडिया पर अपने
आपका प्रचार करना आता है. बिलकुल सही पकड़ा आपने, अब आपको सब समझ आ गया होगा. इनके
मोहल्ले में ही नहीं वरन पूरे शहर में कहीं भी किसी के द्वारा कोई काम हो, इनकी
उपस्थिति को आप सशरीर देख सकते हैं. और तो और, ये लोग वहां अकेले उपस्थिति दर्ज
नहीं करवाते वरन इनके साथ दो-चार चपुल्ले भी लगे होते हैं, जिनका काम लोगों के बीच
इनकी बात करना होता है. ये वरिष्ठ समाजसेवी इसी बीच अपने आपको धकेलते हुए उस जगह
तक ले जाते हैं जहाँ कैमरे वाले, मीडिया वाले आमंत्रित वास्तविक समाजसेवियों को,
शहर के वास्तविक कार्य को अपने अंदाज में संजो रहे होते हैं. ये वरिष्ठ समाजसेवी
सभी को पीछे धकियाते हुए या तो मंच पर अपना स्थान बना लेते हैं. यदि किसी कारण से
मंच पर स्थान न बना पायें तो कैसे भी करके सञ्चालन के लिए माइक पर कब्ज़ा कर लेते
हैं. इसके बाद का काम उनका मोबाइल करता है. लपक-लपक के सेल्फी लेना, किसी भी बड़े
व्यक्ति के जमावड़े में कैसे भी चेहरा ठूंस कर सेल्फी का भंडार खड़ा कर लेते हैं.
बस इनका काम समाप्त. अब न इनको समाज से
मतलब, न सेवा से, न समाजसेवा से. इनका समाज सोशल मीडिया पर इनका इंतजार कर रहा
होता है. इनकी सेवा मोबाइल में कैद हो चुकी होती है. तुरत-फुरत की स्थिति में ये
प्रबल, वरिष्ठ जिस तेजी से आते हैं, उसी तेजी से वहां से गायब होकर अपने काम में
लग जाते हैं. निकाय चुनावों में दावेदारों की इस भीड़ में कोई इनके कामों को पूछता
ही नहीं. कोई इनकी प्रबलता को आंकता ही नहीं. कोई इनकी वरिष्ठता का आदर भी नहीं
करता. कोई इनकी समाजसेवा का चर्चा भी नहीं करता. इसका कारण ये है कि जिस जुगाड़ से
ये सब प्रबल होते हैं, वरिष्ठ समाजसेवी होते हैं मतदाता भी उसी जुगाड़ का इस्तेमाल
कर अपना मत प्रकट करता है. कभी उसकी जुगाड़ किसी दल विशेष के प्रति होती है. कभी
उसकी जुगाड़ का आधार उसकी जाति होती है. कभी उसकी जुगाड़ का आधार कोई प्रलोभन होता
है. जब तक जुगाड़ों का ये इस्तेमाल मतदाताओं द्वारा किया जाता रहेगा तब तक
उम्मीदवारों द्वारा प्रबलता, वरिष्ठ समाजसेवी का झूठा आवरण ओढ़ाया जाता रहेगा. इसके
उलट ये भी कह सकते हैं कि जब तक उम्मीदवारों द्वारा प्रबलता का, वरिष्ठ समाजसेवी
होने का झूठा आवरण ओढ़कर चुनावी मैदान में उतरा जायेगा तब तक मतदाताओं द्वारा
उन्हीं के बीच से जुगाड़ का इस्तेमाल किया जाता रहेगा.
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