11 सितंबर 2017

बच्चों के लिए जिम्मेवारी समझना होगी

साक्षर, सुसंस्कृत पीढ़ी निर्माण का संकल्प है मगर उसी पीढ़ी को सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं जिसको साक्षर, सुसंस्कृत बनाना है. आये दिन समाज में बच्चों-बच्चियों के साथ हो रही वारदातें सामने आ रही हैं. कुछ दिनों तक आक्रोशित दिखाई देने के बाद हम सभी अपने-अपने में सिमट जाते हैं. फिर हमें बस अपना ही परिवेश दिखाई देने लगता है. न वे बच्चे दिखाई देते हैं जो किसी की हैवानियत का शिकार हो चुके हैं और न ही वे बच्चे दिखाई देते हैं जो आने वाले समय में हैवानियत का शिकार हो सकते हैं. ये समझ से परे है कि आखिर समाज में इतनी क्रूरता कहाँ से आ रही है? समाज में इतनी स्वार्थपरता कहाँ से आ रही है? क्यों हम अपने आसपास से लगातार कटते जा रहे हैं? बच्चों के साथ हिंसा, साल-दो साल की बच्चियों के साथ शारीरिक दुराचार, बच्चों की क्रूरतम तरीके से हत्याएँ आदि के आँकड़े जिस तेजी से बढ़ रहे हैं उससे लग रहा है जैसे कि हम सब किसी असंवेदनशील समाज में रह रहे हैं. समाजशास्त्रियों के रूप में काम कर रहे लोगों ने, मनोवैज्ञानिकों के रूप में काम कर रहे लोगों ने, लोगों के व्यक्तित्त्व विकास के लिए काम कर रहे लोगों ने कभी समाज में फ़ैल रही इस विसंगति का, इस बुराई का अध्ययन करने का प्रयास पूरे मन से नहीं किया है.


हरेक घटना के बाद उसी के आसपास के कारणों-समस्याओं को खोजा जाने लगता है और उसी का हल निकालने का प्रयास किया जाने लगता है. इसके उलट होना यह चाहिए कि ऐसी घटनाओं का हल मूलरूप में खोजा जाना चाहिए. कौन-कौन से कारक ऐसी वारदात के पीछे रहते हैं, उनका अध्ययन होना चाहिए. सामाजिक रूप से किसी एक संस्थान के लिए भले ही संभव न हो कि वह एक-एक बच्चे की मानसिकता का अध्ययन कर सके किन्तु विद्यालयीन स्तर पर किसी भी रूप में यह कार्य असंभव नहीं है. स्कूल के स्तर पर प्रत्येक बच्चे की मानसिकता का, उसके हावभाव का, उसके व्यवहार का अध्ययन किया जा सकता है. एक-एक बच्चे को मनोवैज्ञानिक रूप से जांचा-परखा जा सकता है. समय-समय पर बच्चों के माता-पिता से संपर्क करके भी उनकी गतिविधियों की पड़ताल की जा सकती है. इससे भी उन बच्चों की हरकतों, घरवालों के प्रति उनका व्यवहार और घरवालों का बच्चों के प्रति व्यवहार का अध्ययन किया जा सकता है. आजकल स्कूल, घर, परिवार, माता-पिता, शिक्षक, पड़ोसी आदि सबने बस अपने कर्तव्यों का औपचारिक निर्वहन सा करना शुरू कर दिया है. कोई भी अपने दायित्व को, कर्तव्य को अधिकार के साथ, जिम्मेवारी के साथ करने से बचता दिख रहा है. यही कारण है कि आपराधिक प्रवृत्ति के लोग बच्चों के प्रति इसी अकेलेपन का लाभ उठा रहे हैं. किसी न किसी रूप में उनको लालच देकर ऐसे आपराधिक लोग बच्चों के दिल-दिमाग पर हावी होने में सफल सिद्ध हो जाते हैं.


घर, स्कूल में बच्चों के साथ माता-पिता, शिक्षकों को उनके साथ हिल-मिल कर रहना चाहिए. सिर्फ यह कह देना कि माता-पिता या शिक्षक बच्चों के मित्र जैसे हैं, उनके साथ दोस्तों जैसा व्यवहार करें ही काफी नहीं है. बच्चों को इस रूप में मित्र के अलावा एक मार्गदर्शक भी चाहिए, एक सुरक्षा का घेरा भी चाहिए, एक वास्तविक अभिभावक चाहिए है. उसके साथ मित्रता का व्यवहार हो मगर उनको दिशा-निर्देश देने के रूप में न कि उनकी अनावश्यक माँगों, जिदों को पूरा करने के लिए. ऐसा करने से जहाँ बच्चों में हताशा, उद्दंडता, आक्रामकता का भाव पैदा होगा ही साथ ही अकेलापन भी बढ़ेगा. स्कूल जाते बच्चों के पास मित्रों की कमी नहीं होती. सच तो ये है कि उनके पास अभिभावकों की कमी होती है. उनको उचित राह दिखाने वालों की कमी होती है. मित्र बनकर अभिभावक, शिक्षक भले ही उन बच्चों की समस्याओं का पता लगा लें किन्तु बच्चों की सुरक्षा के लिए उन्हीं को सुरक्षा कवच बनना होगा. बच्चों का निर्देशक बनना होगा. बच्चों का आदर्श बनना होगा. यदि ऐसा करने में माता-पिता, शिक्षक सफल हो पाते हैं और तमाम मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री ये जानने में सफल हो जाते हैं कि बच्चों का व्यवहार उनकी किस मानसिकता का द्योतक है तब हम समाज के किसी भी आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति को अपने बच्चों तक पहुँच पाने से रोकने में सफल हो जायेंगे. बच्चों को उनके दुराचार, उनकी क्रूरता से बचाने में भी सफल हो जायेंगे. 

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