लोग
एक बार फिर मुद्दे से भटक कर उसे धर्म, मजहब की चौखट पर खींच लाये. गायक सोनू निगम
ने एक बहुत सामान्य सी बात के सन्दर्भ में चार ट्वीट किये और बस उनके मूल को समझे
बिना विवाद शुरू हो गया. विवाद करने वालों को लगा कि उनके ट्वीट का मूल अज़ान को
बंद करवाना है जबकि वे उसका निहितार्थ भुला बैठे. यदि सोनू निगम के चारों ट्वीट को
पढ़ा जाये तो सहजता से पता चलता है कि उसमें उनका मूल भाव लाउडस्पीकर के उपयोग पर
है न कि अज़ान पर. अब ये और बात है कि सोनू निगम के विरोध में आने वाले बस अज़ान को
ही देख रहे हैं. इस विवाद के साथ एक और बात हुई और वो अत्यंत हास्यास्पद रही. सोनू
निगम के ट्वीट के विरोध में एक मौलवी सामने आये और सोनू निगम का सिर मूंडने के
बदले दस लाख रुपये देने का फतवा जारी कर बैठे. उनके फतवा लाते ही सोनू ने अगले दिन
अपना सिर मुंडवा लिया. अब लोग सोनू निगम के समर्थन में आते हुए मौलवी के पीछे पड़
गए. इस आगा-पीछा पड़ने में मूल भावना कहीं गुम हो गई. इस पूरे विवाद में मुद्दा न
तो ट्वीट था, न अज़ान, न ही फतवा बल्कि मूल मुद्दा था धार्मिक कृत्यों में
लाउडस्पीकर का उपयोग होना. सोनू निगम ने ट्वीट के द्वारा अपनी परेशानी बताई या फिर
अपनी लोकप्रियता की राह को और साफ़ किया ये वही जानें किन्तु उससे एक मुद्दा निकला
कि धार्मिक कृत्यों में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल हो या न हो. जो लोग भी अपने-अपने
स्तर में इस चर्चा में सहभागी बने वे इससे भटक कर हिन्दू, मुस्लिम में विभक्त हो
गए.
देखा
जाये तो विगत कुछ वर्षों से समाज दो भागों में बंट गया है. एक हिन्दू और दूसरा
गैर-हिन्दू. यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ. सोनू निगम के चार ट्वीट में यदि पहले ट्वीट
में अजान शब्द आया है तो तीसरे शब्द में मंदिर, गुरुद्वारा शब्दों का भी प्रयोग
किया गया है. इसके बाद भी बवाल पैदा करने में अज़ान-प्रेमी ही सामने आये हैं. इसमें
मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनों तरफ के लोग हैं. वैसे सोचने की बात बस इतनी है कि
आखिर मुस्लिम समुदाय को इस पर आपत्ति क्या है कि उनकी मजहबी क्रिया में लाउडस्पीकर
का उपयोग न होने का ट्वीट आ गया? कहीं उनको ये तो नहीं लग रहा कि ट्वीट के बहाने
सरकार उनकी मजहबी क्रिया में उपयोग होने वाले लाउडस्पीकर को प्रतिबंधित तो करने जा
रही है? वैसे समाज में यदि हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के धार्मिक कृत्यों में
लाउडस्पीकर के उपयोग पर गौर किया जाये तो मंदिरों में लाउडस्पीकर का उपयोग नियमित
रूप से उतना नहीं होता है जितना कि मस्जिदों में किया जाता है. शत-प्रतिशत
मस्जिदों में दिन में पाँच बार लाउडस्पीकर का उपयोग किया जाता है, इसके मुकाबले
मंदिरों की संख्या कम है. हिन्दू धार्मिक कृत्यों में भागवत, रामचरित मानस का पाठ,
सत्यनारायण कथा आदि के समय लाउडस्पीकर का उपयोग अवश्य किया जाता है. ऐसा भी नियमित
न होकर कुछ दिन के लिए होता है. किसके द्वारा उपयोग कम हो रहा है, किसके द्वारा
उपयोग कम हो रहा है, ये एक अलग मुद्दा बन सकता है किन्तु यहाँ समझने वाली बात ये
है कि आखिर धार्मिक कृत्यों में लाउडस्पीकर की आवश्यकता क्यों पड़ती है? इसका उपयोग
किया ही क्यों जाता है? भले ही सोनू निगम ने किसी भी अन्य मानसिकता के वशीभूत
ट्वीट करके लाउडस्पीकर की समस्या को सामने रखा तो क्या उस पर आम सहमति बनाते हुए
इसके प्रयोग पर प्रतिबन्ध की बात सबको नहीं करनी चाहिए थी? ऐसा कुछ न हुआ बल्कि
इसके उलट हिन्दू-मुस्लिम विवाद को जन्म दे दिया गया.
बहरहाल
अंतिम निष्कर्ष क्या होगा ये तो बाद की बात है मगर एक सामान्य से ट्वीट पर
आक्रोशित हो जाना, फतवा जारी करना, सोनू निगम पर मुकदमा दर्ज करने की अपील,
धार्मिक भावनाओं को भड़काने का आरोप लगाने जैसे कदम मुस्लिम समुदाय की आक्रामकता को
ही दर्शाता है. यही आक्रामकता उनको समुदाय में सबसे कहीं अलग-थलग खड़ा कर देती है.
अपने आपको मुख्यधारा से अलग न होने देने की दिशा में वे खुद ही कुछ सोचें और विचार
करें. उन्हें समझना होगा कि समाज-निर्माण में फैसले लेने का आधार न तो ट्वीट होता
है और न ही लाउडस्पीकर. आपसी समझ, विश्वास, स्नेह ही सबको आगे बढ़ाता है, सबकी
धार्मिक भावनाओं का सम्मान करता है.
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