07 जुलाई 2016

वो आँखों के रास्ते दिल में उतर गई

रात का समय, घड़ी नौ से अधिक का समय बता रही थी. झमाझम बारिश हो जाने के बाद हल्की-हल्की फुहारें अठखेलियाँ करती लग रही थीं. स्ट्रीट लाइट के साथ-साथ गुजरते वाहनों की हेडलाइट भी सड़क को जगमग कर रही थी. गीली सड़क पर वाहनों और लोगों की आवाजाही के बीच मद्धिम गति से चलती बाइक पर फुहारों का अपना ही आनंद आ रहा था. घर पहुँचने की अनिवार्यता होते हुए भी पहुँचने की जल्दबाजी नहीं थी. दोस्तों का संग, हँसी-ठिठोली के बीच समय भी साथ-साथ चलता हुआ सा एहसास करा रहा था. सड़क किनारे एक दुकान के पास बाइक रुकते ही उतरा जाता उससे पहले उससे नजरें मिली. चंचलता-विहीन आँखें एकटक बस निहार रही थी. आँखों में, चेहरे में शून्य सा स्पष्ट दिख रहा था.  चेहरा-मोहरा बहुत आकर्षक नहीं था. कद-काठी भी ऐसी नहीं कि पहली नजर में ध्यान अपनी तरफ खींचती. आँखों में भी किसी तरह का निवेदन नहीं, कोई आग्रह नहीं, कोई याचना नहीं. इसके बाद भी कुछ ऐसा था जो उसकी नज़रों से अपनी नज़रों को हटा नहीं सका. ऐसा क्या था, उस समय समझ ही नहीं आया.

लंका, वाराणसी पर गुब्बारों के साथ शबनम 
बाइक से उतर कर खड़े होते ही वो उन्हीं नज़रों के सहारे नजदीक चली आई. चाल रुकी हुई सी थी मगर अनियमित नहीं थी. आँखों में बोझिलता थी मगर सजगता साफ़ झलक रही थी. चेहरे पर थकान के पर्याप्त चिन्ह थे मगर कर्मठता में कमी नहीं दिख रही थी. एकदम नजदीक आकर भी उसने कुछ नहीं कहा. अबकी आँखों में हलकी सी चंचल गति समझ आई. एक हाथ से अपने उलझे बालों की एक लट को अपने गालों से हटाकर वापस बालों के बीच फँसाया और दूसरे हाथ में पकड़े कुछेक गुब्बारों को हमारे सामने कर दिया. बिना कुछ कहे उसका आशय समझ आ गया. उस लड़की का आँखों ही आँखों में गुब्बारे खरीदने का अंदाज दिल को छू गया. गुब्बारे जैसी क्षणिक वस्तु बेचने का रिस्क और उस पर भी कोई याचना जैसा नहीं. कोई अनुरोध जैसा नहीं बस आँखों की चंचलता. उस चंचलता से झाँकता आत्मविश्वास जैसा कुछ. उस लड़की के हाव-भाव ने, आँखों की चपलता ने प्रभावित किया. लगा कि उसकी मदद की जानी चाहिए किन्तु घर जाने की स्थिति अभी बनी नहीं थी. मन में घुमक्कड़ी का भाव-बोध हावी था. मौसम भी आशिकाना रूप में साथ-साथ चल रहा था. इस कारण गुब्बारे न ले पाने की विवशता ने अन्दर ही अन्दर परेशान किया.

उस लड़की की दृढ़ता और एकबार पुनः गुब्बारों की तरफ देखने के अंदाज़ ने दोस्तों को भी प्रभावित सा किया. जेब में गया हाथ चंद रुपयों के साथ बाहर आया. भाव उभरा कि घर न जाने के कारण हम गुब्बारे नहीं ले पा रहे हैं पर ये कुछ रुपये रख लो. उस लड़की ने रुपयों की तरफ देखे बिना ऐसे बुरा सा मुँह बनाया जैसे उसे रुपये नहीं चाहिए बस गुब्बारे ही बेचने हैं. अबकी आँखों में कुछ अपनापन सा उभरता दिखाई दिया. उसके होंठों पर एक हल्की सी, न दिखाई देने वाली मुस्कराहट क्षण भर को उभरी और गायब हो गई. आँखों और होंठों की समवेत मुस्कराहट में गुब्बारे खरीद ही लेने का अनुरोध जैसा आदेश सा दिखा. हम दोस्तों ने अपने आपको इस मोहजाल से बाहर निकालते हुए गुब्बारे खरीद लिए. गुब्बारों के बदले रुपये लेते उभरी उस मुस्कान ने, आँखों की चमक ने, चेहरे की दृढ़ता ने, उसके आत्मसम्मान ने उसके प्रति आकर्षण पैदा किया.


आँखों आँखों में बने रास्ते पर चलकर नजदीक आई उस लड़की ने हमारे कुछ सवालों पर अपने होंठों को खोला. पता चला कि उस जगह से लगभग पन्द्रह किमी दूर उसका घर है. बड़े से शहर से दूर ग्रामीण अंचल तक उसे अकेले जाना है. कोई उसके साथ नहीं है. अकेले का आना, अकेले का जाना, सुबह से देर रात तक सिर्फ गुब्बारे बेचना, पूरे दिन में सत्तर-अस्सी रुपयों को जमा कर लेना, पेट की आग शांत करने के कारण पढ़ न पाना, चंद मिनट में उसने रुक-रुक कर बहुत कुछ बताया. उम्र, कर्मठता, जिम्मेवारी और आत्मविश्वास के अद्भुत समन्वय में फुहारों में भीगती ‘शबनम’ सुबह की बजाय रात को जगमगा रही थी. बाइक पर चढ़कर जाते समय गीली सड़क पर खड़ी बारह-तेरह वर्ष की वो बच्ची एकाएक प्रौढ़ लगने लगी. उसके नाजुक हाथों में गुब्बारे की जगह जिम्मेवारियाँ दिखाई देने लगी. स्ट्रीट लाइट और गाड़ियों की लाइट से उसका चेहरा चमक रहा था. लोगों के लिए इस चमक का कारण स्ट्रीट लाइट और गाड़ियों की लाइट हो सकती थी मगर हमारी निगाह में वो चमक उसकी कर्मठता की, उसके आत्मविश्वास की थी. 

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