लाल कृष्ण आडवाणी के आपातकाल की आशंका लगाये जाने सम्बन्धी
बयान के बाद सुस्त से पड़े विपक्षी दलों में जान सी आ गई है. सबने उनके एक बयान के बहाने
से मोदी सरकार को निशाना बनाना शुरू कर दिया है. त्वरित प्रतिक्रिया देने की आदत
के चलते और राजनैतिक मजबूरियों के चलते राजनैतिक दलों के विभिन्न नेताओं ने तो
बयान देने आरम्भ कर दिए हैं. दिए जाने वाले बयानों का मंतव्य सिर्फ और सिर्फ मोदी
सरकार को निशाना बनाया जाना है और ऐसा बिना आगा-पीछा सोचे किया जा रहा है. सोचने-समझने
वाली बात है कि जिन आडवाणी जी ने इंदिरा गाँधी द्वारा लगाये गए आपातकाल में उन्नीस
माह जेल में बिताये थे, आखिर उन्होंने किन हालातों को देख-परख लिया कि आपातकाल
लगाये जाने जैसी आशंका व्यक्त की. इस बात को समझे बिना बस बयानों की बाढ़ सी आ गई
है. अभी तक सहज रूप में चल रही केंद्र सरकार निरंकुश सी दिखने लगी है. अभी तक
नागरिक सुविधाओं को देने वाली केंद्र सरकार आपातकाल लाने वाली लगने लगी है.
सुरक्षित समझने वाला आम आदमी एकाएक खुद को असुरक्षित मानने लगा है. बयानबाजियों के
खेल में ये चिंता नहीं की जा रही कि वाकई सत्य क्या है.
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मोदी सरकार ने विगत एक वर्ष में नागरिक कानूनों का, नागरिक
अधिकारों का, मानवाधिकारों का, न्यायालयीन व्यवस्था आदि का किसी भी तरह से कोई हनन
नहीं किया है. ऐसा भी नहीं है कि पूर्व सरकारों द्वारा जनहित में चलाई जा रही किसी
भी योजना को मोदी सरकार द्वारा अवरुद्ध किया गया हो या फिर बंद किया गया हो. इसके
उलट मोदी सरकार द्वारा आम जानता के हितार्थ, मजदूर, शोषित, कमजोर के लाभार्थ नई-नई
अनेक योजनाओं को लागू किया गया है. लगातार आशंका जताए जाने के बाद भी किसी भी तरह
की सब्सिडी को पूर्णतः समाप्त नहीं किया गया है. अल्पसंख्यक समाज में लगातार भय
दिखाया गया था किन्तु आज भी अल्पसंख्यक उतने ही सुरक्षित हैं जितने की पूर्ववर्ती
सरकारों में थे. यदि महंगाई, पेट्रो-कीमतों आदि को आपातकाल लगाये जाने की आहट मान
लिया जाये तो फिर आपातकाल पूर्व के सरकारों में लगाये जाने की आशंका वर्तमान से
अधिक प्रबल थी. इसके बाद भी न तो पूर्व में आपातकाल लगा और न ही अभी लगाया गया है.
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यदि आडवाणी जी के बयान को गंभीरता से समझा जाये तो उन्हों ने
वर्तमान राजनैतिक परिपक्वता पर सवाल उठाते हुए अपनी आशंका व्यक्त की है. इस आशंका
के साथ-साथ उन्हों ने अन्ना आन्दोलन पर भी सवालिया निशान लगाये हैं. यहाँ समझा
जाना चाहिए कि वर्तमान हालातों में राजनीति को लोगों ने बाजारू स्थिति में लाकर
खड़ा कर दिया है. ऐसा लगता है जैसे राजनीति देश, समाज की सबसे निकृष्टतम व्यवस्थाओं
में एक है. जबकि वास्तविकता ये है कि देश, समाज, व्यक्ति, संस्थाएं एक पल को बिना
राजनीति के, बिना राजनैतिक व्यवस्थाओं के चल नहीं सकती हैं. यहाँ आडवाणी जी की
आशंका को हलके में नहीं लिया जाना चाहिए. उन सभी लोगों को, जो राजनैतिक शुचिता की
बात करते हैं सजगता से ध्यान देना चाहिए. स्वार्थपरकता में बनते गठबंधन, महाविलय
जैसी स्वार्थमयी स्थितियाँ, तुष्टिकरण के नाम पर धार्मिक उन्माद फैलाया जाना,
वोट-बैंक के लिए आतंकवाद का भी समर्थन कर देना आदि वे स्थितियां हैं जिनके चलते
गृह युद्ध हो जाये तो आश्चर्य नहीं. और ऐसे हालातों में यदि आपातकाल लगता है तो
क्या गलत होगा. लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर, राजनीति के स्थान पर व्यवस्था
परिवर्तन करने आये लोगों की नजर में संविधान का, संसद का, लोकतंत्र का कोई मोल
नहीं; मुफ्त के सब्जबाग दिखाकर अफरातफरी पैदा करना एकमात्र उद्देश्य हो तो आपातकाल
की आशंका से कोई भी इनकार नहीं कर सकता, आडवाणी जी तो जाने-माने राजनीतिज्ञ हैं,
बौद्धिक राजनीतिज्ञ हैं, चिंतनशील राजनीतिज्ञ हैं. उनके इस बयान पर बवाल नहीं
बल्कि चिंतन करने की आवश्यकता है.
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