इधर
दो-तीन दिनों से लगातार दुखद खबरें आ रही हैं जिनके द्वारा ज्ञात हुआ कि सोशल
मीडिया पर नियमित रूप से सक्रिय कुछ व्यक्तियों ने किन्हीं कारणों से आत्महत्या
जैसा कदम उठाया और अपने जीवन को समाप्त कर लिया. ये समझने वाली बात है कि सोशल
मीडिया में अपनी जबरदस्त उपस्थिति दिखाने वाले आखिर किस कारण से ऐसा कदम उठा लेते
हैं? आखिर कोई न कोई समस्या ऐसा अवश्य ही उनके साथ रहती होगी जो उनको नितांत अकेला
महसूस कराती होगी. समझा जा सकता है कि फेसबुक की इस दुनिया में कितनी भी अच्छाईयाँ
क्यों न हों मगर सैकड़ों की संख्या में दोस्तों के होने के बाद भी व्यक्ति यहाँ खालीपन
ही महसूस करता है. यदि ऐसा न होता तो क्यों फेसबुक पर नियमित रूप से सक्रिय रहने वाले
'आत्महत्या' करते??? सोचने और समझने
की बात है कि एक मशीन के सामने बैठा व्यक्ति, एक मशीन को हाथ में लिए व्यक्ति किसी
से वार्तालाप तो कर सकता है, पर वो न तो सामने वाले के मनोभावों को समझ सकता है,
न ही उसका अकेलापन मिटा सकता है. ये सभी जानते हैं कि मृत्यु दुख देती
है, परिचित की मृत्यु परेशान भी करती है और जिससे लगभग रोज ही
किसी पोस्ट के ज़रिये, लाइक, कमेंट,
मैसेज आदि के द्वारा मुलाकात होती रहती हो उसका जाना भी सालता है. इस
दुःख में समझने की जरूरत है कि अकेलापन, खालीपन आभासी दुनिया
के लोग, सोशल मीडिया के लोग नहीं मिटा सकते. अपने खालीपन को मिटाने के लिए हमें आपस
में मेलजोल बढ़ाने की जरूरत है. मशीन के सामने से निकल कर वास्तविक समाज में घुलने-मिलने
की जरूरत है. परिवारीजनों, दोस्तों, परिचितों,
सहयोगियों आदि के साथ ज्यादा से ज्यादा समय देने की जरूरत है. क्रांति
करने के लिए, सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए, सामाजिक कार्य करने के लिए इस दुनिया से बाहर आकर लोगों के बीच जाने की जरूरत
है.
.
ये
विचारणीय होना चाहिए और सामाजिक रूप से सक्रिय लोगों को इस पर ध्यान देने की
आवश्यकता है कि आखिर किन कारणों से आभासी दुनिया में अत्यधिक सक्रिय व्यक्ति
वास्तविक जीवन में नितांत अकेलापन महसूस करता है? ये समस्या महज युवा वर्ग के
सामने नहीं, पति-पत्नी के सामने नहीं, बच्चों के सामने भी आ रही है. इधर देखने में
आ रहा है कि छोटे-छोटे बच्चे भी मोबाइल, कंप्यूटर आदि के द्वारा सोशल मीडिया में
सक्रिय दिखते हैं, भले ही वे इसके लिए अपने ही परिवार के किसी बड़े की प्रोफाइल का
सहारा लेते हों और उनके व्यवहार में भी एक प्रकार की खिन्नता, एक तरह की अराजकता,
एक तरह का खालीपन दिखता है. इधर बच्चों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें भी
सुर्ख़ियों में रही हैं. ऐसे में सोशल मीडिया के, आभासी दुनिया के द्वारा उत्पन्न
खालीपन को समझना, जानना और भी आवश्यक हो जाता है. संभव है कि यहाँ सक्रिय व्यक्ति
पूरी तरह से समाज से कटा रहता है और उसे अपने आसपास के सक्रिय लोगों से ही
भावनात्मकता बनाये रखने में आनन्द महसूस होता है. इसके बाद जब किसी वजह से उसको
समुचित अथवा सकारात्मक व्यवहार सामने वाले से प्राप्त नहीं होता है तो उसे कहीं न
कहीं खिन्नता सी महसूस होती होगी. इसी के साथ आभासी दुनिया में सक्रिय लोगों में
बहुतायत ऐसे भी हैं जिनका वास्तविक दुनिया से संपर्क लगभग समाप्त सा हो गया होता
है. इस कारण से आभासी दुनिया से प्राप्त खालीपन को वे वास्तविक दुनिया से भरने में
असमर्थ रहते हैं. ऐसा होने की स्थिति उनको सभी से अलग, तन्हा साबित कर देती है. इस
अकेलेपन में अवसाद की स्थिति पैदा हो जाने से उनके सामने खुद को समाप्त कर लेना ही
एकमात्र विकल्प जान पड़ता है, फलतः वे लोग ऐसा कदम उठा लेते हैं.
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बहरहाल
ये समझने, समझाने की जरूरत है कि आभासी दुनिया नितांत आभासी ही है. एक बार निकल कर
यहाँ से बाहर देखने की जरूरत है. यहाँ सक्रिय लोगों को अपने परिवार, समाज,
दुनिया, यहाँ के लोग कतई बुरे नहीं लगेंगे. इस
आभासी दुनिया से इतर कहीं अधिक भले, अपने से लगेंगे. दिल की तन्हाई
को मिटाने के लिए, अपने खालीपन को भरने के लिए, अकेलापन दूर करने के लिए लोगों से मिलते-जुलते
रहने से बेहतर कोई उपाय नहीं. अभी भी न जागे तो आत्महत्याओं की एक लम्बी कड़ी हमारे
सामने बनती नज़र आएगी जो समूचे समाज के लिए शर्म की बात होगी.
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