मंत्री जी
एक सामाजिक कार्यक्रम में आये और जैसी की उनसे अपेक्षा थी ठीक वैसा ही भाषण देकर,
विवाद सा छेड़कर निकल लिए. उत्तर प्रदेश के केन्द्रीय मंत्री आज़म खान भाषण दें और
बिना किसी विवादस्पद विषय के, विवादस्पद शैली के उनका भाषण समाप्त हो जाये ऐसा
संभव नहीं होता है. आज़म खान और उनकी शैली का चोली-दामन का साथ रहा है, साथ ही
विवादित बयानबाज़ी भी उनकी शैली बनती रही है. कार्यक्रम चाहे राजनैतिक हो अथवा
सामाजिक, हिन्दुओं के मध्य हो या फिर मुसलमानों के मध्य, प्रदेश की राजधानी में हो
या फिर किसी छोटे से कस्बे में, किसी बड़े मुद्दे-व्यक्ति-समस्या पर बोल रहे हों
अथवा बहुत छोटे विषय पर चर्चा कर रहे हों उनकी कोशिश विवादित बयान देने की ही रहती
है.
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देखा जाये
तो उनके भाषणों के, बयानों के केंद्र में मुसलमान ही रहते हैं. वे किसी न किसी रूप
में खुद को मुसलमानों का एकमात्र नेता साबित करने की कोशिश में लगे हुए हैं. यदि
इस पूरी कवायद पर निगाह डालें तो स्पष्ट रूप से दिखता है कि उत्तर प्रदेश की
राजनीति में सक्रिय रहने के बाद भी समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह खुद को केन्द्रीय
राजनीति में स्थापित करने में लगे हुए हैं. उनका पूरा ध्यान विगत कई वर्षों से प्रदेश
का मुख्यमंत्री बनने के स्थान पर देश का प्रधानमंत्री बनने पर लगा हुआ था. ऐसे में
पार्टी के कई बड़े नेता खुद को प्रदेश के मुख्यमंत्री का दावेदार समझने लगे थे. और
जब लैपटॉप, टैबलेट के लालच में और तत्कालीन बसपा सरकार की निराशात्मक व्यवस्था से
निकलने के लोगों ने समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत से प्रदेश में सत्ता सौंप दी
तो इन्हीं बड़े-बड़े नेताओं में शामिल आज़म खान को भी अपने मुख्यमंत्री बनने कि अपार
संभावनाएं दिखाई देने लगी थीं. ऐसा इसलिए भी संभव दिख रहा था क्योंकि समाजवादी
पार्टी के पास दूसरा कोई नेता ऐसा नहीं है जिसे मुस्लिम चेहरे के रूप में पेश किया
जा सके. वैसे भी अयोध्या मामले में माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के आदेश के बाद
से समाजवादी पार्टी अथवा मुलायम सिंह के पास मुसलमानों को प्रसन्न करने के लये,
अपने पक्ष में उनके वोट करने के लिए कुछ बचा नहीं था, इस दृष्टि से भी आज़म खान
मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में सबसे आगे चल रहे थे. उनकी इस दबी-छिपी
महत्त्वाकांक्षा पर मुलायम सिंह के पुत्र-मोह ने तुषारापात कर दिया. यदि घटनाक्रम
याद हो तो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अखिलेश यादव के आसीन होने के बाद आज़म खान
नाराज़ भी रहे और बाद में भी कई मौके ऐसे आये जब आज़म खान को नाराज़ होते देखा गया.
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इधर अखिलेश
के मुख्यमंत्री बनने से तुषारापात तो हुआ ही साथ ही लोकसभा चुनाव परिणामों ने समाजवादी
पार्टी और मुस्लिम वोट-बैंक के नाम पर होती आ रही राजनीति को आईना दिखा दिया. इधर
समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन भी निराशाजनक रहा वहीं सरकार का प्रदर्शन भी संतोषजनक
नहीं कहा जा सकता है. उस पर मुलायम सिंह का पुनः अमर सिंह के प्रति झुकाव कोढ़ में
खाज का काम करता दिख रहा है. लोकसभा चुनावों में जिस तरह से भाजपा को बहुमत मिला
है उससे एक बात तो साफ होती है कि तमाम गैर-भाजपाई राजनैतिक दलों द्वारा मुसलमानों
को जिस तरह से भाजपा का, हिंदुत्व का डर दिखाया जा रहा था, वह सफल नहीं हो सका. इन
सबके चलते ज़ाहिर है कि आज़म खान अपनी आक्रामक शैली के चलते और प्रत्येक बयान को
मुस्लिमों के इर्द-गिर्द रखकर वे अपनी भविष्य की राह का निर्माण करने में लगे हैं.
कहीं न कहीं उनके मन में प्रदेश स्तर से ऊपर राष्ट्रीय राजनीति में खुद को मुस्लिम
चेहरे के रूप में स्थापित करने की आकांक्षा है. इसका कारण भी साफ है कि किसी भी दल
में ऐसा कोई स्थापित नेता दिखता नहीं है जो आज़म खान की भांति आक्रामक और बेबाक
अंदाज़ में मुसलमानों का पक्ष लेता हो.
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आज़म खान के
पास जितना राजनैतिक अनुभव है उसके अनुसार वे भी सहजता से इस बात को समझ रहे हैं कि
प्रदेश में समाजवादी पार्टी का भविष्य क्या है; मुलायम सिंह के अमर-प्रेम के पुनः
पनपने पर उनका वजूद क्या है. और यदि अपनी स्थिति को वे प्रदेश से राष्ट्रीय स्तर
पर ले जाना चाह रहे हैं तो कतई गलत नहीं है बस उसका तरीका गलत है. उनके भाषणों,
बयानों से वैमनष्यता की, ईर्ष्या की, उकसाने की भावना स्पष्ट झलकती दिखती है, जो समाज
के लिए कहीं से भी उचित नहीं है. एक तरफ खुद उन्हीं के द्वारा भाजपा पर, आरएसएस पर
वैमनष्यता की राजनीति करने का आरोप लगाया
जाता है और दूसरी तरफ खुद उसी तरह की राजनीति करते दिखते हैं; एक तरफ हिन्दू पक्ष
में आते बयानों का विरोध करते हैं तो दूसरी तरफ वे खुद को मुसलमानों का पहरेदार
बताते हैं; एक तरफ मुलायम सिंह को बड़े भाई के जैसा बताते हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं
के विरोध में बयानबाज़ी करने से नहीं चूकते हैं; एक तरफ हिन्दू-मुसलमान के संयुक्त
प्रयासों से संपन्न होते सामाजिक कार्यक्रम में जाते हैं और दूसरी तरफ हिन्दुओं को
गरियाते हुए उनको मुसलमानों पर हिंसक हमलों का आरोपी बताते हैं. ये रणनीति उनके
मंसूबों को स्पष्ट करती है कि वे खुद को सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम नेता के रूप में
स्थापित करना भर है. वर्तमान में वे किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में हैं. कहा भी
जाता है कि राजनीति में कोई माई-बाप नहीं, जहाँ से सत्ता सुख मिले उसी तरफ चले
जाओ.
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