आज एक राष्ट्रीय दैनिक में बेटियों से सम्बंधित समाचार पढ़कर
देश में तमाम दावों के बीच बेटियों की स्थिति स्मरण हो आई। समाचार के अनुसार ऐसा
लगा जैसे सरकारी स्तर पर बेटियों की संख्या बढ़ने का दावा किया गया था और वो गलत
गलत निकल कर एक अंक नीचे ही गिरा है। 2011 की जनगणना में बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया कि 2001 की जनगणना की तुलना में 2011 में महिलाओं की संख्या बढ़ी है। यह सत्य भी दिखता है क्योंकि 2001 में प्रति एक हजार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 933 थी जो 2011 में
बढ़कर 940 तक जा पहुंची। यह आंकड़ा एक पल को भले ही प्रसन्न करता हो
किन्तु इसके पीछे छिपे कड़वे सत्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। 2001 की जनगणना में छह वर्ष तक की बच्चियों की संख्या 927 (प्रति हजार पुरुषों पर) थी जो 2011 में घटकर 914 रह गई है। यही वो आंकड़ा है जो हमें महिलाओं की बढ़ी हुई संख्या पर प्रसन्न
होने की अनुमति नहीं देता है। सोचने की बात है कि जब इस आयु वर्ग की बच्चियों की
संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है तो महिलाओं की संख्या में इस वृद्धि का कारण
क्या रहा?
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यदि 2011 की जनगणना के आँकड़े बच्चियों के संदर्भ में देखें तो उनके
भविष्य के प्रति एक शंका हमें दिखाई देती है। 2001 की जनगणना में जहां देश के 29 राज्यों में
शून्य से छह वर्ष तक की आयुवर्ग की बच्चियों की संख्या 900 से अधिक थी वहीं 2011 में ऐसे राज्यों की संख्या 25 रह गई।
राज्यों में बच्चियों के प्रति सजगता की स्थिति यह रही कि मात्र आठ राज्य ही ऐसे
रहे जिनमें बच्चियों की संख्या में 2001 के मुकाबले 2011 में वृद्धि देखने को मिली, इनमें भी चार राज्यों में
बच्चियों की संख्या 900 के आँकड़े को छू भी नहीं पाई। इसे नीचे दी गई सारणी से आसानी से समझा जा सकता
है।
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0-6 वर्ष आयु वर्ग की बच्चियों की संख्या में वृद्धि वाले राज्य (प्रति 1000 पर)
राज्य
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2001
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2011
|
वृद्धि
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पंजाब
|
798
|
846
|
48
|
चंडीगढ़
|
845
|
867
|
22
|
हरियाणा
|
819
|
830
|
11
|
हिमाचल प्रदेश
|
896
|
906
|
10
|
अंडमान-निकोबार
|
957
|
966
|
09
|
मिजोरम
|
964
|
971
|
07
|
तमिलनाडु
|
942
|
946
|
04
|
गुजरात
|
883
|
886
|
03
|
Source: Provisional Population Totals
India : Census 2011
Official Website : Ministry of Home
Affairs : Office of the Registrar General & Census Commissioner, India
उक्त राज्यों पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा,
हिमाचल प्रदेश,
अंडमान-निकाबार, मिजोरम, तमिलनाडु तथा गुजरात में ही वृद्धि देखने को मिली शेष सभी राज्यों में शिशु
लिंगानुपात में कमी देखने को मिली है।
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छः वर्ष तक की बच्चियों की संख्या में पिछली कई जनगणनाओं से
लगातार गिरावट आती रही है और कमोबेश कुल जनसँख्या में महिलाओं की संख्या में प्रति
एक हजार पुरुषों के मुकाबले थोड़ी बहुत वृद्धि होती रही है। सरकारी नुमाइंदे इसी
अल्प वृद्धि को अपनी सफलता मानते रहे हैं। वे भूल गए या फिर भूलने का नाटक करते
रहे कि जब तक बच्चियों की संख्या में वृद्धि नहीं हो रही है तब तक महिलाओं की
संख्या में वृद्धि का कोई अर्थ नहीं। यह सिर्फ सरकारी आंकड़ों की बाजीगीरी मात्र कही
जा सकती है। बच्चियों की लगातार गिरती संख्या को निम्न सारणी से समझा जा सकता है।
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वर्ष 1961 से 2011 तक बच्चियों और महिलाओं की
संख्या (प्रति एक हजार पर)
वर्ष
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बच्चियों की संख्या
|
महिलाओं की संख्या
|
1961
|
976
|
941
|
1971
|
964
|
930
|
1981
|
962
|
934
|
1991
|
945
|
927
|
2001
|
927
|
933
|
2011
|
914
|
940
|
Source: Annual Report 2002-03,
Department of Women and Child Development, Ministry of Human Resource
Development, Govt of India and
Official Website : Ministry of Home
Affairs : Office of the Registrar General & Census Commissioner, India
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उक्त सारणी से स्पष्ट है कि वर्ष 1961 की जनगणना से वर्ष 2011 की जनगणना तक
छः वर्ष तक की बच्चियों की संख्या में लगातार गिरावट आती रही है। यह संख्या 1961 की 976 के मुकाबले वर्ष 2011
में 914 पर आकर ठहर गई है। इस संख्या में लगातार गिरावट ही
होनी है क्योंकि तमाम सरकारी तथा गैर-सरकारी प्रयासों के बाद भी समाज में कन्या
भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध को नहीं रोका जा सका है। ये घटनाएं आज भी हमारे
आसपास होती दिख रही हैं। ऐसे में उक्त सारणी के आंकड़ों को समझने में किसी तरह की
सांख्यिकीय विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं है, कोई भी साधारण व्यक्ति आंकड़े देख कर
बता देगा कि बच्चियों की संख्या में गिरावट होने के बाद महिलाओं भी की संख्या बढ़ना
किसी दूसरे कारण का सूचक है। सरकारी नुमाइंदे इन आंकड़ों को गोलमोल रूपसे जनता के
सामने रखकर अपनी पीठ खुद ठोंकने का काम करते रहते हैं। इसकी आड़ में वे सब कहीं न
कहीं इस समस्या से मुंह छिपा रहे हैं जो नित विकराल रूप धारण करके सामने आती जा
रही है। वर्ष 2001 की जनगणना के बाद वर्ष 2011 की जनगणना में 900 से अधिक बच्चियों की संख्या वाले
राज्यों का 29 से घटकर 25 रह जाना,
बेटियों की संख्या में बढ़ोत्तरी वाले राज्यों की संख्या का मात्र 8 होना, वर्ष 1961 से लगातार बेटियों की संख्या में
गिरावट आते रहना बताता है कि समस्या किस कदर गंभीर होने जा रही है।
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बालिकाओं
की गिरती संख्या से बनते परिदृश्य में कुछ बिन्दु ऐसे हैं जिनको नजरअंदाज नहीं
किया जा सकता है। चिकित्सा विज्ञान स्पष्ट रूप से बताता है कि लगातार होते गर्भपात
से महिला के गर्भाशय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और इस बात की भी आशंका रहती है कि
महिला भविष्य में गर्भधारण न कर सके। पुत्र की लालसा में बार-बार गर्भपात करवाते
रहने से गर्भाशय के कैंसर अथवा अन्य गम्भीर बीमारियां होने से महिला भविष्य में
मां बनने की अपनी प्राकृतिक क्षमता भी खो देती है। परिणामतः वह आने वाले समय में
परिवार के लिए न तो पुत्र ही पैदा कर पाती है और न ही पुत्री। बार-बार गर्भपात
करवाने से महिला के गर्भाशय से रक्त का रिसाव होने की आशंका बनी रहती है। बार-बार
गर्भाधान और फिर गर्भपात से महिला के शरीर में खून की कमी हो जाती है और अधिसंख्यक
मामलों में गर्भवती होने पर अथवा प्रसव के दौरान महिला की मृत्यु इसी वजह से हो
जाती है। इसके अतिरिक्त एक सत्य यह भी है कि जिन परिवारों में एक पुत्र की लालसा
में कई-कई बच्चियों जन्म ले लेती हैं वहां उनकी सही ढंग से परवरिश नहीं हो पाती
है। उनकी शिक्षा,
उनके लालन-पालन, उनके स्वास्थ्य,
उनके खान-पान पर भी उचित रूप से ध्यान नहीं दिया जाता है।
इसके चलते वे कम उम्र में ही मृत्यु की शिकार हो जाती हैं अथवा कुपोषण का शिकार
होकर कमजोर बनी रहती हैं।
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अभी से
यह चेतावनी सी देना कि समाज में बच्चियों की संख्या भविष्य में कम होते जाने पर
उनके अपहरण की सम्भावना अधिक होगी; ऐसे परिवार जो सत्ता-शक्ति से सम्पन्न होंगे, वे कन्याओं को मण्डप से उठा ले जाकर अपने परिवार के लड़कों के उनका विवाह करवा
दिया करेंगे;
बालिकाओं की अहमियत बढ़ जायेगी और सम्भव है कि बेटियों के
परिवारों को दहेज न देना पड़े बल्कि लड़के वाले दहेज दें आदि कदाचित ठीक-ठीक नहीं
जान पड़ता है। इस प्रकार की आशंकायें समाज की मानसिकता पर निर्भर करेंगी कि लगातार
कम होती बेटियों के साथ उसका कैसा व्यवहार रहेगा किन्तु यह स्पष्ट है कि वर्तमान
में महिला लिंगानुपात जिस स्थिति में है, महिलाओं को,
बच्चियों को जिन विषम हालातों का सामना करना पड़ रहा है आने
वाला समाज बेटियों के लिए सुखमय तो नहीं ही होगा। बच्चियों के अपहरण, बलात उनको उठाकर ले जाने और विवाह रचाने के अपराध आज भी हो
रहे हैं और सरकारी स्तर पर इनको रोकने के कोई भी उपाय नहीं किये जा रहे हैं। इसी
तरह आज भी समाज में एकाधिक मामले ही ऐसे आते हैं जिनमें उच्च शिक्षित, नौकरीपेश बेटी का विवाह बिना दहेज के हुआ हो। इसके बाद भी
पूर्ण दावे के साथ कहा जा सकता है कि कोई भी कालखण्ड हो, कोई भी समाज हो, महिला लिंगानुपात की स्थिति कैसी भी हो किन्तु बार-बार गर्भपात करवाते रहने से
महिला के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ेगा, उसकी प्रजनन क्षमता भी नकारात्मक रूप में प्रभावित होगी, उसकी शारीरिक क्षमता में भी गिरावट आयेगी और सम्भव है कि
मातृत्व की चाह में उसको मौत तक का सामना करना पड़े।
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सरकार
और सरकारी अफसरान, स्वयंसेवी संगठन भले ही अपनी पीठ इस बात के लिए ठोंक लें कि हम
बालिकाओं के प्रति प्रोत्साहन का कार्य कर रहे हैं पर सत्यता यह है कि सिवाय
दिखावे के हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। अब दिखावे से बाहर आकर ठोस कदम उठाने होंगे।
समाज को इस बारे में प्रोत्साहित करना होगा कि बेटियों के जन्म को बाधित न किया
जाये,
बेटियों को गर्भ में अथवा जन्म लेने के बाद मारा न जाये।
पुत्र लालसा में बेटियों की फौज को खड़े करने से भी समाज को रोकना होगा। समाज के
प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं को आदर्श रूप में प्रस्तुत करके बच्चियों के साथ-साथ
उनके माता-पिता के मन में भी महिलाओं के प्रति आदर-सम्मान का भाव जाग्रत करना
होगा। बेटियों को भी वही मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता करवानी होगी जो एक परिवार
अपने पुत्र को देने की बात सोचता है। हम सभी को अपने मन से, कर्म से, वचन से
बेटियों के प्रति,
बच्चियों के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाना पड़ेगा और पुत्र
लालसा में अंधे होकर बेटियों को मारते लोगों को समझाना होगा कि ‘यदि बेटी को मारोगे तो बहू कहाँ से लाओगे?’
.
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