अपने आसपास आये दिन हम बुजुर्गों को बेसहारा भटकते देखते
हैं। सिर पर एक अदद छत के अभाव में वे खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारने को मजबूर
हैं तो रोटी-कपड़े की मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के लिए भीख मांगने जैसा कार्य करने
में लगे हैं। रेलवे स्टेशन पर, बस स्टैंड पर, पार्कों के आसपास, शहर से दूर कहीं वीराने में, किसी
अर्द्धनिर्मित भवन में,
जर्जर भवन में ऐसे बुजुर्गों को रहते हुए देखा जा सकता है।
ऐसे शहरों में जहां कि स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा, बड़े-बड़े उद्योगपतियों द्वारा बेसहारा बुजुर्गों के लिए
आश्रयस्थलों का संचालन किया जा रहा है, वहां इन बुजुर्गों को फिर भी थोड़ी बहुत राहत है। इसके ठीक उलट उन तमाम छोटे
शहरों में जहां इस तरह की कोई भी सुविधा नहीं है और शासन-प्रशासन भी इस ओर ध्यान
नहीं दे रहा है,
बेसहारा बुजुर्गों के लिए अपने अस्तित्व को बचाये रखना, अपने आपको जिन्दा रख पाना दुष्कर होता जा रहा है।
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इधर विगत के कुछ वर्षों में समाज में जिस तेजी से विकास का
दौर चला है,
उससे विकास के साथ-साथ विखण्डन का दौर भी चला है। पारिवारिक
अवधारणा टूटकर बुरी तरह से बिखरी है और इस बिखराव में सबसे अधिक नुकसान बुजुर्गों
को ही हुआ है। इधर-उधर असहाय से, बेसहारा, भटकते, कूड़े के ढेर
से भोजन-सामग्री बटोरते,
भीख मांगते वृद्धजनों को देखकर मन विचलित होता है किन्तु
सर्वाधिक कष्ट उन बुजुर्गों को देखकर होता है जो जीवन के इस पड़ाव पर मेहनत भरा, दुरूह कार्य करके अपने आपको जिन्दा रखने की जद्दोजहद करने
में लगे हुए हैं। अपनी जीविका चलाने के लिए, रोजी-रोटी के लिए किसी भी उम्र में, किसी भी प्रकार का कार्य करना बुरा नहीं है। आज भी बहुत से बुजुर्ग ऐसे हैं जो
किसी न किसी संस्था से जुड़कर वहां अपनी सेवायें दे रहे हैं और बदले में पारिश्रमिक
प्राप्त कर अपना जीवन निर्वाह करने में लगे हैं। यह एक सुखद स्थिति भले ही न हो पर
इस रूप में सुकून देती है कि जो बुजुर्ग अपनी शारीरिक अवस्था से सक्षम हैं वे बिना
किसी पर बोझ बने,
बेसहारा न बनकर स्वयं अपने बलबूते पर अपना जीवन व्यतीत कर
रहे हैं। इसके ठीक उलट दूसरे रूप में वे वृद्धजन हैं जो शारीरिक श्रम न कर पाने की
स्थिति में भी स्वयं को शारीरिक कष्ट देते हुए कार्य करने में लगे हैं। इनमें
रिक्शा खींचना,
ठेला चलाना, मजदूरी करना,
खेतों में कार्य करना शामिल है। सोचा जा सकता है कि इस तरह
के कठिन शारीरिक श्रम करने में जहां अच्छे-अच्छे बलिष्ठ युवाओं को पसीने छूट जाते
हैं,
वहां वे वृद्धजन, जिनको ममता,
स्नेह की छांव में अपने अन्तिम दिनों को गुजारना चाहिए था, अपनी रोजी-रोटी के लिए मेहनत भरा काम करने को मजबूर हैं।
ऐसे विषम हालातों के लिए जिम्मेवार कारकों का अध्ययन होना चाहिए और विकास के नाम
पर बढ़ रही पारिवारिक विखण्डता को रोकने के प्रयास करने चाहिए। आर्थिक रूप से, भौतिक रूप से, वैश्विक रूप से हम कितने भी सशक्त क्यों न हो गये हों; भले ही विश्व की प्रमुख शक्तियों के ग्रुप में शामिल हो गये
हों;
भले ही हमारे समाज के अधिसंख्यक परिवारों की आय
लाखों-करोड़ों का आंकड़ा छूने लगी हो किन्तु जब तक हम अपने बुजुर्गों के प्रति
सम्मान का,
आदर का भाव नहीं जगा पाते, उनका आदर-सम्मान नहीं कर पाते तब तक किसी भी तरह की सफलता, चकाचौंध बेमानी है।
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