06 फ़रवरी 2011

सामाजिकता के प्रति नजरिया और मानसिकता में बदलाव


जीवन की दार्शनिकता अपने आपमें बहुत ही रहस्यमय है। जीवन जितना रंगीन है उतनी ही रंगहीनता उसमें व्याप्त है। जीवन को पूरी तन्मयता से जीने वालों को भी कभी-कभी खामोशी ओढ़ते देखा है, अब भले ही यह खामोशी उनकी स्वयं की ओढ़ी हुई हो अथवा समय के हाथों ओढ़ाई गई हो। जिन्दगी के मायनों को जिन्दादिली देने वालों के साथ भी समय बुरा बर्ताव करे तो समझ में आता है कि काल की गति का नियन्त्रण मानव के हाथों में नहीं है किन्तु जब जिन्दादिल व्यक्ति के सामाजिक योगदान, जीने के प्रति उसके सकारात्मक रवैये का समाज के द्वारा ही सही स्वरूप में आकलन न किया जाये तो लगता है कि समाज स्वयं ही अंधा होकर काम करता है।

चित्र गूगल छवियों से साभार

किसी व्यक्ति के कार्य कर आकलन क्या होना चाहिए यह भी सवाल हो सकता है। समाज को रास्ता दिखाने वाले को ही रास्ते से भटकने पर मजबूर होना पड़े तो सोचा जा सकता है कि समाज कहां जा रहा है। एक टीस सी लगी दिल में जब दिखा कि समाज के भीतर व्यक्ति के कार्यों के प्रति सकारात्मक रवैया लगभग समाप्त सा होता जा रहा है। जब तक उस व्यक्ति से किसी भी रूप में लाभ की गुंजाइश रहे तब तक उसको समाज में प्रतिस्थापित करते रहना चाहिए और उसके बाद....

यह एक ऐसा विचारपरक सत्य है जिस पर आज समाज अपने हिसाब से सोचने-विचारने का काम करने लगा है। किसी भी व्यक्ति के कार्य का आकलन उससे पूरे होने वाले लाभ के संन्दर्भ में होने लगा है। ऐसे में जबकि अपने अन्त समय में व्यक्ति को समाज से अकेलापन, स्वार्थपरकता ही मिलनी है तो वह क्यों और किसके लिए अपने आपको सामाजिकता के खांचे में फिट किये रहे?

यह सत्य है कि सामाजिक कार्यों के प्रति किसी भी व्यक्ति की लगन के पीछे उसका स्वार्थ नहीं वरन् उसकी कार्य करने की इच्छाशक्ति तथा समाज को कुछ देने की ललक होती है। इसके बाद भी यदि कभी अवसर पड़ने के बाद भी उस व्यक्ति के प्रति समाज बेरुखी दिखाता है तो भविष्य के लिए कौन, क्यों आगे आयेगा? सोचना होगा कि समाज के प्रति हमारा जो दायित्व है वह वास्तविक में किस तरह का और कैसा होना चाहिए?


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