02 दिसंबर 2010

विश्व एड्स दिवस गुजर गया, आइये उन्मुक्त संबंधों को फिर बनाया जाए


आज दो दिसम्बर है। कुछ खास तो नहीं है, विशेष तो कल था एक दिसम्बर को। कल एक दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस सभी ने मनाया। शासन-प्रशासन ने इस तरह से विश्व एड्स दिवस को मनाया जैसे कोई महान दिवस मनाया जा रहा हो।

सरकारी अमलों के अलावा गैर सरकारी संगठनों ने भी अपनी अनुदान राशि का उपयोग करते हुए कार्यक्रम करके अपने कागजातों को सुधार लिया। महाविद्यालयों में काम कर रही राष्ट्रीय सेवा योजना की इकाइयों ने भी अपनी औपचारिकता का निर्वाह कर लिया। सरकारी तन्त्र प्रसन्न हुआ, गैर सरकारी संगठन प्रसन्न हुए, तमाम सारी इकाइयां प्रसन्न हुईं और साथ में प्रसन्न हुए वे लोग जो अपनी जीभ और गले को तराशने के लिए किसी न किसी समारोह, गोष्ठी आदि के इन्तजार में बैठे रहते हैं।

कल के कार्यक्रमों को देखकर, टीवी पर दिखाई जा रही रिपोर्टों, इंटरनेट पर प्रसारित हो रहे विवरणों के बाद तो लग रहा था कि सभी के सभी जागरूक होकर एड्स को भगाने की कोशिश में हैं। कोशिशें भी इतनी तेज लगीं कि एहसास हुआ कि इसी वर्ष ही एड्स देश से समाप्त हो जायेगा। आज सुबह-सुबह समाचार-पत्रों की रंगावट देखकर इस एहसास को और बल मिला। लगा कि अब तो हमारा देश एड्स के चंगुल से निकल ही जायेगा।

हम कितनी खुशफहमी में जीने के आदी हो गये हैं और समस्याओं को देखकर भी, समझकर भी खुशफहमी का शिकार बने रहना चाहते हैं। हमें यह भली-भांति ज्ञात है कि एड्स को समाप्त करने के लिए गोष्ठी-समारोहों-रैलियों आदि से ज्यादा जरूरी है कि हम आत्मविश्वास कायम रखें। वर्तमान में विश्वास की समाप्ति लगभग पूर्णरूप से हो चुकी है, ऐसे में आत्मविश्वास की संकल्पना को पैदा करना मुश्किल ही दिखता है।

यह सभी को पता है कि एड्स की बीमारी किस कारण से होती है। इसके बाद भी हम संयमित जीवनशैली को व्यतीत करने के पक्ष में नहीं है। दूसरे की थाली का चावल अपनी थाली के चावल से ज्यादा स्वादिष्ट होता है की धारणा बनाकर हर स्त्री-पुरुष विवाहेत्तर सम्बन्धों की ओर मुड़ जाता है। इसके अलावा जो युवक-युवती अभी शादी के सामाजिक बंधन में रह कर सेक्स जैसी स्थितियों से नहीं गुजरे होते हैं वे विवाहपूर्व सम्बन्धों को बुरा नहीं मानते हैं।

आज के जो हालात हैं उनमें इस तरह की रोकटोक को पुरातनपंथी धारणा, संकुचित मानसिकता का समझा जाता है। अब यदि इस संकुचन से बाहर आना ही है तो उसके साथ कुछ अच्छाइयां और कुछ बुराइयां भी सामने आयेंगीं। इन अच्छाइयों में आपको शारीरिक सुखों की प्राप्ति हो रही है तो बुराई के स्वरूप में एड्स की प्राप्ति तो होनी ही है।

सामाजिक रूप में जो प्रयास हुए हों वे तो अलग हैं स्वयं सरकार की ओर से भी उन्मुक्त सेक्स की अवधारणा को बल दिया गया है। किसी जमाने में परिवार नियन्त्रण का साधन बनाकंडोमआज एड्स नियन्त्रण के रूप में काम में लाया जा रहा है। अब कंडोम के प्रचार में परिवार नियोजन नहीं वरन् एड्स की रोकथाम की बात दिखलाई जाती है। ऐसे में कैसे सोचा जा सकता है कि हम एड्स को रोक पायेंगे।

चलिए कोई बात नहीं, एक दिसम्बर तो कल निकल ही चुका है। कल हम सभी ने विश्व एड्स दिवस मना भी लिया है। जो भिज्ञ हैं उनको तो ठीक ही है और जो अनभिज्ञ हैं उन्हें भी ज्ञात हो गया है कि एड्स से बचने का उपाय क्या है। हमने कल सभी को बताया भी है कि उन्मुक्त सेक्स के लिए किस प्रकार से एहतियात करती जाये। सेक्स किसी के साथ भी करें बस कंडोम का उपयोग करें।

हमने कतई यह नहीं समझाया है कि अविवाहित युवक-युवतियां सेक्स के प्रति अपनी चाहत को बढ़ायें। हमने नहीं समझाया है कि पति-पत्नी आपस में प्रेमभाव से रहें और दूसरे जोड़ों की ओर शारीरिक आकर्षण का शिकार हों। हमने बिलकुल भी नहीं बताया है कि शारीरिक संवेगों को नियन्त्रित करना प्रमुख होना चाहिए वरन् उन्हें समझाय है कि यदि शारीरिक संवेगों की शान्ति करें तो उपयुक्त सुरक्षा उपाय भी अपनायें रखें। हमने युवाओं को उन्मुक्त सेक्स के खतरों को नहीं समझाया है वरन् उन्मुक्त प्रेमालाप के रास्ते सुझाये हैं।

आइये हम इन तमाम सारे कदमों के बीच इस एहसास से गुजरें कि हमारा देश उन्मुक्त प्रेमालाप, उन्मुक्त शारीरिक सम्पर्कों के वातावरण में एड्स-विहीन होकर विकास करेगा। अभी एक दिसम्बर आने में पूरा एक वर्ष है। एड्स के प्रति लोगों को सचेत करने, असुरक्षित शारीरिक सम्बन्धों के बनाने के खतरों को समझाने के लिए भी पर्याप्त समय है, गोष्ठियों-समारोहों को पुनः करवाने में भी एक वर्ष का समय है तब तक तो स्वच्छन्द शारीरिकता की बात तो की ही जा सकती है। आइये देखें कि किसकी दाल कहां गलनी सम्भव होती है और किसकी थाली में हमारी थाली से ज्यादा स्वादिष्ट चावल है।



चित्र गूगल छवियों से साभार

1 टिप्पणी:

  1. सयंम और संस्कार के नाम से ही आज की युवा पीढी को कीड़ा काट जाता है ... बाकी का काम आलू-चालू सर्वे कर देते हैं

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