01 अगस्त 2010

अपने गुलाम होने का एहसास मरने न दीजिये --- इसे जिन्दा रखना ही चाहिए




आज कई दिनों बाद ब्लॉग संसार में या कहें कि इंटरनेट पर लौटना हुआ। कुछ बिजली के कारण और कुछ अन्य दूसरी व्यस्तताएँ।

इधर कई दिनों से समाचार-पत्रों में, इलैक्ट्रॉनिक चैनलों के द्वारा कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों की छीछालेदर की जा रही है। (एकबारगी हमें लगा कि कहीं मीडिया हमारे छीछालेदर रस को न ले उड़े)

(चित्र गूगल छवियों से साभार)


तैयारियाँ कैसी चल रहीं हैं, कैसी होनी चाहिए थीं, क्यों सही ढंग से नहीं हो रहीं, कौन जिम्मेवार है आदि-आदि विषयों को आधार बनाकर मीडिया अपने लिए मसाला खोज रही है।

इन सबके बीच आज से और अभी से नहीं बहुत पहले से मन में प्रश्न उभरते रहे हैं कि आखिर हम कॉमनवेल्थ गेम्स में भाग क्यों लेते हैं? क्यों हम इन पर अपना कीमती धन और समय बर्बाद करते हैं? क्या सिर्फ इस बात को याद रखने के लिए कि हम कभी गुलाम थे?

हम तो अभी तक इन प्रश्नों का उत्तर नहीं खोज सके यदि आप लोग हमारी मदद कर सकें और सही राय दे सकें तो हमारे लिए, हमारी छोटी सी खोपड़ी की सेहत के लिए अच्छा रहेगा।


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