01 जुलाई 2009

कॉलेज जाने में वो जोश नहीं रहा अब

आज पहली जुलाई है। पहली तारीख का अपना अलग महत्व है और वह भी तब जब कि इस दिन आपको अपने कालेज जाना हो। बचपन में स्कूल के दिनों में इन्तजार रहता था कि कब गर्मियों की छुट्टियाँ हों और कब स्कूल से पीछा छूटे।
छुट्टियाँ होते ही मौज-मस्ती, धूम-धमाका होता था। आज के बच्चों की तरह नहीं कि इन दिनों में भी काम का बोझ लादे घूम रहे हैं। कुछ दिनों की उठापटक के बाद लगता था कि जल्दी से स्कूल खुलें ताकि नई ड्रेस पहनने को मिले, नई किताबें, कापियाँ, पेन्सिल आदि मिलें। नये-पुराने दोस्तों का मिलना हो।
आज वैसा एहसास होता है जबकि कालेज खुलता है पर वो जोश नहीं रहता। कारण अब बचपन नहीं रहा। अब हम बड़े हो गये और बडे होने के साथ-साथ हमने बेमतलब की तमाम औपचारिकता अपने ऊपर थोप ली है। आज कालेज जाना है क्योंकि ये एक रुटीन काम है। जाना है, लोगों से हाय-हैलो होगी, छुट्टियाँ कैसे गुजरीं, कहाँ-कहाँ कापियों का मूल्यांकन करने गये, कहाँ कितना पेमेंट मिला, वेतन वृद्धि का क्या हुआ, बजट में इनकम टैक्स के बारे में क्या होगा, सेवानिवृत्ति की आयु 62 वर्ष से बढ़ा कर 65 वर्ष की जायेगी या नहीं आदि-आदि।
लगता है कि मासूमियत हम कहीं गहरे तक दफन कर चुके हैं। सम्बन्धों में नितांत औपचारिक होते जा रहे हैं। इसी कारण से अब कालेज जाने का जोश नहीं है। बस जाना है तो जाना है।

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