इधर आई पी एल मैचों का प्रारम्भ हुआ वहीं उन लोगों की जीभ में खुजली पैदा हो गई जो कम कपड़ों में नारी को देखकर संस्कृति का क्षरण होना स्वीकार लेते हैं। यही तो आधुनिकता है कि कम से कम कपड़ों में टहला जाये। किसी को आपत्ति क्या है? और होनी भी नहीं चाहिए। संस्कृति का क्षरण कब और कैसे हो जाता है ये पता ही लगा पाये आज तक।
कभी पढ़ने में आता है कि नारी के साथ इज्जत से पेश न आने पर संस्कृति का क्षरण होता है। कभी पढ़ने में आता है कि कुछ लोगों ने विदेशी महिलाओं से शारीरिक छेड़खानी की, बदसलूकी की और संस्कृति का क्षरण हुआ। यह तो हम हमेशा से पढ़ते-सुनते आ रहे हैं कि नारी का स्थान समाज में पूज्य है और उसके साथ दुव्र्यव्यवहार किसी न किसी रूप में सांस्कृतिक चेतना के साथ किया गया भद्दा मजाक है जो दूसरे स्वरूप में संस्कृति के क्षरण को ही दर्शाता है। इसके बाद भी क्या हम आज भी नारियों की इज्जत करना सीख पाये हैं? (इस वाक्य से वे लोग अपने को दूर रखेंगे जो नारी को इज्जत देते हैं, बेटियों को सम्मान, प्यार देते हैं)
हम नहीं सीख पाये क्योंकि हम अभी भी देखते हैं कि महिलाओं के साथ लगातार छेड़खानी की घटनायें हो रहीं हैं। देश में चले एक नाटक को अभी शायद ही कोई भूला होगा जिसमें धर्म परिवर्तन कर आपस में एक हुआ गया और फिर धर्म की ही आड़ लेकर अलग-अलग हो गये। क्या यहाँ संस्कृति का क्षरण होता नहीं दिखा? कुछ ऐसा ही सवाल नारीवादियों से कि क्या इस प्रकार के उदाहरण नारी सशक्तिकरण के सूचक हैं?
चलिए बापस वहीं, कपड़ों वाली बात पर। एक जमाना था जब कहा जाता था कि निर्माता निर्देशक औरतों की, माडल की मजबूरी का फायदा उठाकर उनका शारीरिक शोषण करते हैं और उनको कम से कम कपड़ों में दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। समय के साथ मजबूरी बदली, दर्शकों की सोच का फायदा नारियों ने उठाना शुरू किया। पुरुष के उपयोग का सामान हो या फिर स्त्रियों के प्रसाधन सभी में नारियाँ ही दिखने लगीं। होते-होते यह प्रदर्शन कम से कमतर कपड़ों में बदल गया। जब विरोध के स्वर उठे तो कहा गया कि नारियों की स्वतन्त्रता को बाधित किया जा रहा है। पुरुषों की सोच विकृत है। महिलाओं के पास जो दिखाने लायक है वो दिखा रहीं हैं। दर्शकों पर आरोप लगाया गया कि जो वे देखना चाहते हैं वहीं दिखा रहे हैं। कहने का तात्पर्य कि सबने अपने-अपने हिसाब से अपनी बातों को सही सिद्ध करने का प्रयास किया।
अब देखिए, दर्शकों में अकेले पुरुष वर्ग ही है या फिर सेक्स अपील को पुरुष ही देखना पसंद करते हैं। क्यों महिलाओं को नग्न रूप में दिखाया जाता है? क्यों महिलायें स्वयं को इस रूप में दिखाने को तैयार हो जातीं हैं? अब जो माडल रूप में पर्दे पर आ रहीं हैं वे गरीब नहीं, आर्थिक रूप से कमजोर नहीं, वे अपनी मर्जी से निर्माता-निर्देशकों को घुमाने वालीं अभिनेत्रियाँ हैं। तब क्या इसे भी मजबूरी का नाम दिया जाये? या फिर ये पब्लिसिटी का एक भौंड़ा तरीका है?
कुछ भी हो अब किसी भी रूप में इस नग्नता को रोक पाना सम्भव नहीं। यह अब तभी रुकेगी जब महिलाओं को स्वयं लगेगा कि उफ! अब बहुत हुआ।
कहने लिखने को बहुत है पर पोस्ट को देखते हुए लग रहा है कि बड़ी हो जायेगी। इसलिए अभी इतना ही...शेष क्रमिक रूप से सामने लाते रहेंगे। इसे यहीं पर समाप्त न समझा जाये।
(इस पोस्ट को लिखने के पीछे नारी ब्लाग की पोस्ट का बहुत बड़ा हाथ है।)
चुनावी चकल्लस-राजनैतिक परिदृश्य में दूर तक नहीं दिखतीं हैं,
फिर भी वे हाथों में हाथ लिये दिखतीं हैं,
चेहरे पे हँसी, आँखों में अदा लिए दिखतीं हैं,
सोचो क्या वे बस भीड़ के लिए दिखतीं हैं,
सोचो तुम भी कर्णधारो क्या कर रहे हो,
क्या वे तुम्हें बस एक शरीर ही दिखतीं हैं।
28 अप्रैल 2009
कपड़े पहनने न पहनने के बीच का विवाद
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प्रिय मित्र
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाएं पढकर सुखद अनूभूति हुई। नयी तथा ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए मेरे ब्लाग पर अवश्य पधारे।
अखिलेश शुक्ल
http://katha-chakra.blogspot.com
http://rich-maker.blogspot.com
http://world-visitor.blogspot.com
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जवाब देंहटाएंकुछ पढ़ कर कुछ लिखना बहुत सार्थक प्रयास होता हैं . naari ब्लॉग पर नारी आधारित मुद्दे आते रहेगे और आप जैसे लोग उनको आगे बढाते रहेगे सही दिशा मे एक प्रयास हैं हम सब का समाज को आइना दिखने का .
जवाब देंहटाएंइस से सम्बंधित एक कविता हैं जो इस लिंक पर हैं कभी पढे
www.sahityakunj.net/LEKHAK/R/RachnaSingh/ek_aur_samvad.htm
aapke vicharon ke sath ek bargi doob jaata hai man..parantu yah mudda ek sarthak bahas amantreet karta hai.. krpya aage linkhe..
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