ये दिल का दर्द था जो जूते के रूप में सामने आया। यहाँ एक पूरी कौम को नजरअंदाज करने का मामला है तो वहाँ पूरे के पूरे देश को तबाह करने का मामला था। दोनों ही मामलों में कहीं न कहीं हताशा दिख रही थी। यहाँ हम उनकी नहीं अपनी बात करें तो बेहतर होगा।
सन् 1984, देश की प्रधानमंत्री की हत्या, देश में सिख विरोधी दंगों का शुरू होना और मौतों का मंजर, आग जलने का मंजर, चीखों और कराहों का मंजर.............. और भी बहुत कुछ।
हमें भली प्रकार से याद है इस समय की, हालांकि उस समय हम कक्षा 6 पास करके कक्षा 7 के विद्यार्थी बने थे। इंदिरा गांधी के बारे में इतना पता था कि वो बहुत ही कड़क नेता हैं, बालती बहुत ही बढ़िया हैं। चूँकि उस समय इंटरनेट, चैनल की सम्भावना हमारे लिए क्या आम रूप से नगण्य थी, टीवी भी गिने-चुने दो-चार घरों में होते थे। कभी-कभी इंदिरा गांधी को रेडियो पर ही सुना था और उसी आवाज ने प्रभावित कर रखा था।
हत्या होने का क्या अर्थ है, क्यों की गई, किसने की, क्या परिणाम होंगे इसका कुछ भी भान उस समय नहीं था। अगले दिन सुबह-सुबह अपने घर के सामने से गुजरने वाली छोटी सी गली से लोगों को सामान उठा-उठा कर भागते देखा। कोई कुछ लिए भागा जा रहा है, कोई कुछ लिए भागा जा रहा है। हम और हमारी छोटी सी मित्र मंडली हैरान कि ये आज हो क्या रहा है? चूँकि घर बाजार से दूर एक छोटी सी गली में था जहाँ पुलिस या किसी प्रकार के दंगाइयों का आज भी प्रभाव नहीं पड़ता, सो हम लोग अपने-अपने घरों के चबूतरे पर बैठे हँसते-गाते उस भागादौड़ी का मजा ले रहे थे।
बाद में घर में अन्य सदस्यों की बातचीत में पता चला कि शहर में दंगा हो गया है, सिखों की दुकानें लूटी जा रहीं हैं। ये बात फिर भी समझ में नहीं आई कि ऐसा क्यों किया जा रहा है। हम बच्चे अपने-अपने कामों में लगे रहे। घर के लोगों को उसके बाद बराबर रेडियो पर चिपके देखा। चाचा लोग बाहर थे, कोई रिश्तेदार कानपुर में तो कोई दिल्ली में तो कोई म0प्र0 में था। सबकी चिन्ता करते भी देखा। तब लगा कि कोई भीषण घटना हो गई है।
समय गुजरता रहा, घर के सदस्य-चाचा आदि- जैसे-जैसे समय मिलता रहा सुरक्षित हम लोगों के पास आ गये। दंगा नाम ही इतना बुरा होता है कि उसका असर आज भी उस दिन को याद करके समझ आता है। तब भी घर में आने वालों की, जिन्होंने दंगे को अपनी आँखों से देखा उनकी बातों को सुनकर लगा कि कैसे एक देश के लोग अपने ही देश के लोगों को मार देते हैं?
उस समय इंदिरा जी का व्यक्तित्व लगभग पूरे देश पर हावी था इस कारण इस घटना के कई साल गुजर जाने के बाद भी इंदिरा भक्त लोगों के मन से विरोधी भावना समाप्त नहीं हुई। बातों-बातों में दंगों की चर्चा, मारने वालों के प्रति दुर्भावना आदि का प्रदर्शन हो ही जाया करता था। यही सब आज भी हो रहा है पूरे 24 वर्ष के बाद (25 होने में कुछ माह ही शेष हैं।)
मामले में कार्यवाही की गई, लोगों को आरोपी बनाया गया, अदालती कार्यवाही हुई, बयान हुए, दंगा फैलाने वालों की शिनाख्त भी हुई, फैसले भी आये...........पर.............परिणाम..........??? यहीं आकर हताशा होती है। जब हमें होती है तो उन लोगों की स्थिति सोचिए जिन्होंने अपने सीने पर इसके घाव सहे हैं?
इस पूरे मामले में एक दो आदमी नहीं पूरी की पूरी मशीनरी ही दोषी रही है। जिसने भी इंदिरा गांधी के हत्यारों के गाँवों को पहले देखा हो वो अब उस स्थान का मुआयना करले, सारी स्थिति साफ हो जायेगी। एक बड़े पेड़ के गिरने पर धरती तो डोलती है पर गाँव के गाँव साफ नहीं होते हैं?
दंगे ने अपना असर दिखाया था, आज भी दिखा रहा है। इस पर तब भी सियासत हावी थी आज भी है। इस मामले को तब भी राजनैतिक रंग दिया गया था अब भी दिया जा रहा है। इसके आरोपी तब भी बाहर घूम रहे थे अब भी घूम रहे हैं। दंगे के पीड़ित उस समय भी रो रहे थे आज भी रो रहे हैं। न्याय का इंतजार उन्हें कल भी था न्याय का इंतजार उन्हें आज भी है। क्या न्याय मिलेगा? क्या हताशा दूर होगी? क्या आरोपी पकड़े जायेंगे? क्या अब दोबारा जूता नहीं फिंकेगा? क्या जवाब है किसी के पास?
चुनावी चकल्लस-हमने उनकी आँखों में अपने लिए अरमान देखा,
उनके हाथों में अपने लिए फिर सम्मान देखा,
अब तो वे हमारे सपनों में भी आने लगे हैं,
जिन्हें विगत कई सालों में हमने गुमनाम देखा।
09 अप्रैल 2009
इनकी हताशा को क्या कोई समझेगा...
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इस दर्द को कौन समझता है? वर्तमान सरकार ने तो कभी नही समझा।आखिर हताशा मे आदमी गुहार तो लगाएअगा ही।सटीक लिखा है।
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