20 जनवरी 2009

साहित्यकार हाशिए पर????

ये सम्पादकीय साहित्यिक पत्रिका "स्पंदन" के प्रवेशांक पर लिखी थी। आज भी उस अंक के पढने वाले उसकी सम्पादकीय पर अपनी टिप्पणी देते रहते हैं। सोचा आज उस सम्पादकीय को आपके लिए भी रखा जाए।


‘स्पंदन’ का प्रवेशांक आपके हाथों में सुशोभित है, आशा है आगे भी पल्लवित पुष्पित होता रहेगा। साहित्यिक पत्रिकाओं की गौरवशाली, समृद्ध परम्परा के बीच कई स्थापित पत्रिकाओं के अस्तित्व को समाप्त होते देखा है; अनेक पत्रिकाओं को अस्तित्व में आते देखा है। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़ा होता है कि ‘साहित्य और संस्कृति की रचनाशीलता के रेखांकन’ की क्या आवश्यकता आन पड़ी, वह भी तब जबकि साहित्यिक पत्रिकाओं की व्यापक उपस्थिति है। साथ ही यह भी कि क्या ‘स्पंदन’ स्वाभाविक रूप से अपनी उपस्थिति सिद्ध कर पायेगी ? यहाँ साहित्य और संस्कृति की रचनाशीलता के रेखांकन के प्रवेशांक के माध्यम से कुछ बात दिल की रखना है -
प्रथम तो यह कि बड़े शहरों से प्रकाशित होती बड़ी-नामी पत्रिकायें नामी और स्थापित साहित्यकारों (रचनाकार नहीं) की ओर दौड़ती हैं। ऐसे में क्षेत्रीय स्तर के रचनाकार मात्र रचना करते ही रह जाते हैं और उनकी प्रतिभा एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रह जाती है। यह दो टूक स्वीकारोक्ति है कि ‘स्पंदन’ के द्वारा बुन्देलखण्ड की और देश के अन्य भागों की ऐसी रचनाशील प्रतिभा को प्रकाशन का अवसर प्रदान करना है जिन्हें नामी पत्रिकायें हेय दृष्टि से देखती हैं।
दूसरे विडम्बना यह है कि देश का हर दूसरा तीसरा व्यक्ति स्वयं को साहित्यकार बताता है, परन्तु असल में साहित्यकार है कौन अभी तक यह परिभाषित (मेरी समझ से) नहीं हो सका है। कभी-कभी फिल्मी और क्रिकेट सितारों की अपार लोकप्रियता देखकर स्थापित साहित्यकारों को मानसिक कष्ट होता है कि देश में साहित्यकार हाशिए पर क्यों है ? हाल ही में स्व. श्री हरिवंश राय ‘बच्चन’ की स्मृति में लखनऊ में आयोजित काव्य-गोष्ठी में प्रख्यात व्यंग्य कवि अशोक चक्रधर जी ‘बच्चन जी’ का विशालकाय चित्र देखकर विस्मय से स्वीकारते हैं कि उन्होंने पहली बार किसी साहित्यकार का इतना बड़ा चित्र देखा हैं। क्या ‘बच्चन जी’ का विशालकाय चित्र उनके महानायक पुत्र अमिताभ की प्रतिच्छाया नहीं कही जायेगी ? इसी स्थान पर आकर स्थापित रचनाकार (साहित्यकार नहीं) सोचें कि वे लोग हाशिए पर क्यों हैं ?
नामी रचनाकारों द्वारा स्वयं को बड़ा साहित्यकार सिद्ध करना, नवोदित रचनाकारों की उपेक्षा करना, छोटी और क्षेत्रीय साहित्यिक पत्रिकाओं को रचनात्मक सहयोग न देना, नये रचनाकारों की रचनाओं को बिना पढ़े कूड़ा-करकट घोषित करना, कहीं न कहीं रचनाधर्मिता के क्षेत्र में खेमेबन्दी को जन्म देता है। एक छोटा सा फिल्मी कलाकार ग्रामीण अंचलों में भी पहचाना जाता है पर देश के वर्तमान स्थापित साहित्यकारों को बड़े शहरों के अधिसंख्यक लोग भी नहीं जानते हैं। स्थापित और नामी रचनाकारों को न जानने और न पहचानने का कारण इन रचनाकारों का क्षेत्रीय स्तर की पत्रिकाओं में लेखन से बचते रहना है। जो दो एक स्थापित रचनाकारों के नाम क्षेत्रीय स्तर की पत्रिकाओं में आते भी हैं, वे किसी न किसी की जुगाड़ के सहारे, किसी न किसी के ‘थ्रू’। ऐसे में ज्यादातर लोगों की पहुँच से दूर इन रचनाकारों के सामने पहचान का, अस्तित्व का संकट पैदा होगा ही।
तीसरे यह कि क्षेत्रीय स्तर पर जो पत्रिकायें (स्वयंभू साहित्यकारों की भाषा में लघु पत्रिकायें) अस्तित्व में आई भी हैं उन्हें अपनी क्षेत्रीयता को त्याग कर अखिल भारतीय स्तर पर खड़ा होने की घुट्टी पिलाई जाती है; अन्य पत्रिकाओं से कुछ अलग कर दिखाने का उपदेश दिया जाता है, परिणामतः उनकी दशा धोबी के कुत्ते सरीखी हो जाती है। अखिल भारतीय स्तर पर पहचान बनाने की जद्दोजहद में वे क्षेत्रीय एवं नये रचनाकारों को विस्मृत कर देती हैं और स्थापित रचनाकारों का रचनात्मक सहयोग भी प्राप्त नहीं कर पाती हैं। स्पष्ट है कि ऐसे में पत्रिका के सामने अस्तित्व को मिटाने के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता नहीं होता है।
किसी भी रचनाकार अथवा पत्रिका का अस्तित्व पाठकों पर निर्भर करता है। एक रचनाकार अच्छे रचनाकार के रूप में पहचाना जाये; लोग उसे साहित्यकार समझें; उनकी रचनाओं को आत्मसात् करें; उसको ग्राम-अंचल तक भी लोग पहचानें, वही रचनाकार स्थापित है वर्ना हाशिए पर तो समस्त रचनाकार पड़े हैं। मात्र गालियों भरी रचना कर, किलष्टता का प्रयोग कर, अपने नाम के सहारे प्रकाशनों की संख्या बढ़ाकर, प्रायोजित पुरस्कार अथवा सम्मान पाकर कोई रचनाकार साहित्यकार नहीं हो जाता। उसका पाठक कहाँ है ? जन-जन के हृदयंगम हुई रचना और रचनाकार ही साहित्य और साहित्यकार है। कबीर का फक्कड़पन, सूरदास की भक्ति, मीराबाई के भजन, तुलसी की रामचरित मानस क्यों वर्षों बाद भी घर-घर में स्थान प्राप्त किये हैं, ग्रामीण जनों के भी हृदय में विराजमान है ? यदि रचनाकार यही समझ लें तो उसके भीतर छिपा साहित्यकार कभी भी हाशिए पर नहीं रहेगा; साहित्यिक पत्रिकाओं के ऊपर कभी भी अस्तित्व का संकट नहीं गहरायेगा। खैर .............. बात दिल की थी सो कह दी।
‘स्पंदन’ की कालावधि कितनी है, परिधि कितनी है यह तो पाठकों और रचनाकारों पर निर्भर है। हमारा प्रयास कर्म करना है; अपने लोगों को अपने लोगों के बीच तक पहुँचाना है। प्रख्यात हिन्दी गज़लकार दुष्यन्त कुमार के शब्दों में-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

1 टिप्पणी:

  1. सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
    मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।


    --सत्य है..उम्दा आलेख.

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