निकिता मेहता के केस ने समूचे देश में एक बहस छेड़ दी है. गर्भ में पल रहे शिशु के स्वास्थ्य को देख कर गर्भपात की समयसीमा क्या हो, यह एक बहस का मुद्दा हो गया है. निकिता के केस ने कई सारे मानवीय सवाल भी खड़े किए हैं जो किसी न किसी रूप में कानून को भी निशाना बना सकते हैं. एम् टी पी के अंतर्गत गर्भ में पल रहे शिशु के स्वास्थ्य को ख़तरा है या यह पता लगता है कि उसकी मानसिक हालत ठीक नहीं होगी या फ़िर वो विकलांग हो सकता है तो चिकित्सकों की सहमती के बाद मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर गर्भपात करवाया जा सकता है. यहाँ सवाल खड़ा होता है कि क्या जन्म के बाद यदि यही सारी समस्याएं बच्चे में आतीं हैं तो क्या उसको मार दिया जाए? यदि गर्भ के शिशु की मेडिकल रिपोर्ट बताये कि बच्चा स्वस्थ है पर देख नहीं सकेगा तो भी क्या उसको गर्भ में मारा जा सकता है? इसी तरह के सवाल अदालत ने भी किए और निकिता की याचिका खारिज कर बच्चे को जन्म देने के लिए कहा।
यहाँ सवाल खड़ा होता है की ऐसे समाज में जहाँ आज भी विकलांग को एक विकलांग की दृष्टि से ही देखा जाता है, उसको दया की निगाह से देखा जाता है, ऐसे में क्या इस तरह के निर्णय ठीक हैं? यह बात अपनी जगह सही है की किसी भी स्थिति में जान लेना अपराध है पर कहीं कहीं कानून ही इसकी इजाज़त देता है। सोचना होगा की एक माँ ने कितना कडा दिल करके अदालत के सामने ये गुहार लगे होगी की मुझे अपने गर्भ के बच्चे को मर डालने की अनुमति दी जाए. उसके सामने निश्चय ही इस समाज का भयावह सच तथा अपने बच्चे का भविष्य आ खडा हुआ होगा. यहाँ मामला कन्या भ्रूण हत्या का कदापि नहीं होगा क्योंकि इस प्रकार के निर्णय के लिए 25 हफ्ते का समय बहुत ही अधिक है.
निश्चय ही ये विषय बहस का हो गया है पर क्या हमें किसी के निजी, संवेदनशील, भावनात्मक विषय को बहस का मुद्दा बनने की आजादी है? हमें समाज में उस स्थिति को बहस के स्थान पर लाने की आवश्यकता है जिसमें हर एक इंसान को सम्मान मिले. इज्ज़त मिले, किसी को विकलांग न समझा जाए, जहाँ इंसान बस इंसान हो. क्या ऐसा सम्भव है या हम बस बहस करके ही सपने कर्तव्यों की इतिश्री करते रहेंगे?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें