23 दिसंबर 2023

इमरोज-अमृता-साहिर : जबरिया स्थापित प्रेम-आदर्श

‘इमरोज लिखते, पढ़ते, सुनते ही इस शब्द के मूल अर्थ के स्थान पर एक शख्स उभर कर आता है, जिसके साथ और भी नाम उभरते हैं. यकीन न हो तो इस पोस्ट को पूरा पढ़ने के पहले एक बार आँखें बंद करिए और मन में इमरोज नाम की आकृति बनाइये. इस तस्वीर के साथ आपको तस्वीर दिखेगी अमृता प्रीतम की. जैसे ही अमृता प्रीतम का चित्र आपकी आँखों के सामने बनता है, आपके अंतर्मन में बनता है, उस नाम के साथ एक और नाम उभरता है. आश्चर्य, अबकी ये नाम इमरोज का नहीं है. ऐसा कैसे? यदि इमरोज का नाम मन-मष्तिष्क में आते ही अमृता प्रीतम का चित्र उभरता है तो अमृता प्रीतम का नाम दिल-दिमाग में आते ही इमरोज की छवि उभरनी चाहिए, मगर ऐसा नहीं होता है. अमृता का नाम सामने आते ही इमरोज से अलग दूसरा चेहरा उभरता है और वो चेहरा होता है साहिर लुधियानवी का. है न एक कमाल का त्रिकोण? प्रेम का एक ऐसा त्रिकोण जहाँ प्रेम है मगर उसकी स्वीकार्यता नहीं; प्रेम है मगर उसकी सम्पूर्णता नहीं.




बहरहाल, चर्चा इस त्रिकोणीय प्रेम पर नहीं बल्कि इमरोज के निधन के पश्चात् उभरे प्रेम के कथित आदर्शवादी स्वरूप पर चर्चा का मन है. कथित शब्द पर बहुतेरे आदर्शवादियों को दिक्कत हो सकती है, होती है तो हुआ करे. कुछ ऐसा ही काम तो इमरोज ने किया, अमृता ने किया. इमरोज के निधन के पश्चात् उनके और अमृता के प्रेम का आदर्श भरा स्वरूप दिखाने वाले अचानक से प्रकट हो गए. इमरोज को प्रेम के अनेकानेक अलंकरणों से, विभूषणों से सजाया जाने लगा. आलंकारिकता की, विभूषणों की सीमा से बाहर जाकर इमरोज के प्रेम को सर्वोच्च शिखर पर विराजित करने जैसे प्रयास होने लगे. अमृता प्रीतम की मृत्यु के लगभग दो दशक बाद तक इमरोज निहायत तन्हा जीवन गुजारते रहे, तब उनके प्रेम में आदर्श किसी को नजर नहीं आया. चर्चा का विषय ये भी नहीं है बल्कि चर्चा के केन्द्र में अनावश्यक रूप से एक ऐसी स्थिति को महिमामंडित किये जाने की मानसिकता है, जो बिना कुछ सोचे-समझे बस भेड़चाल में लग जाती है.


इमरोज लगभग चालीस वर्षों तक अमृता के साथ रहे, प्रेम के नाम पर रहे जबकि समाज ने, दुनिया ने कभी उनको अमृता का नौकर समझा, कभी ड्राईवर समझा. अमृता लेखन करती तो इमरोज चाय बनाकर रखते; अमृता की साहित्यिक मंडली घर आती तो इमरोज सबकी खातिरदारी करते; राज्यसभा सदस्य बनी अमृता जब संसद जाती तो इमरोज बाहर बैठे उनका इंतजार करते. इसके बाद भी इमरोज को मिला अपनी पीठ पर साहिर का वो नाम जिसे अमृता अपने नाखूनों से लिखती. इमरोज-अमृता, अमृता-साहिर नाम के इन दो समीकरणों में केमिस्ट्री शायद गायब ही थी, जिसे आँखों पर पट्टी चढ़ाए समाज समझ नहीं पाया. इमरोज प्रेम करते रहे अमृता से, अमृता प्रेम करती रही साहिर से, साहिर अमृता के प्रति अपने प्रेम को जाहिर ही नहीं कर सके और अंततः एक दिन वे अमृता से दूर, बहुत दूर हो गए. प्रेम के इस समीकरण में बहुत सी बातें समझने लायक हैं, जिनको कथित आदर्श थोपने के पहले समझना आवश्यक है. इमरोज और साहिर ने आजीवन विवाह नहीं किया और अमृता ने जिस विवाह को दकियानूसी, घुटन भरा, अहंकारी मानकर अपने पति से अलग रहना स्वीकार किया, वे आजीवन उनके नाम ‘प्रीतम को अपने साथ चिपकाए रहीं. समझ नहीं आता कि प्रेम का ये कौन सा आदर्शमयी स्वरूप है, जिसे समाज में स्थापित करने के प्रयास हो रहे हैं?




बात इतनी सी ही नहीं है बल्कि इससे आगे भी है. एक पल को विचार करिए कि इमरोज विवाहित होते तो इस तरह के प्रेम-सम्बन्ध का निर्वहन कर पाते? साहिर यदि विवाहित होते तो क्या अमृता उनके प्रति अपने प्रेम को इस कदर सार्वजनिक कर पातीं? अमृता यदि अपने पति संग रह रही होती तो क्या इमरोज इस तरह से चालीस साल उनके साथ संबंधों का निर्वहन कर पाते? क्या साहिर के प्रति अमृता तब भी इतनी ही निर्भीकता दिखा पाती? परिवार के नाम पर एक कड़ी के गायब रहने की स्थिति में ही इमरोज, अमृता, साहिर प्रेम का ये स्वरूप दिखा पाए, निभा पाए. अभी बात इमरोज की तो इमरोज किसी भी तरह से न तो प्रेम के दूत हैं, न ही प्रेम का कोई अवतार हैं, न ही किसी तरह के पारिवारिक आदर्श हैं. परिस्थितियों के व्यामोह में लिपटी हुई एक तृष्णा के वशीभूत वे अमृता के साथ बने रहे. प्रेम का स्पष्ट, एकतरफा स्वीकार्य देखने, महसूस करने के के बाद भी इमरोज का अमृता के साथ बने रहना एक अलग कहानी है मगर इसमें किसी तरह का आदर्श खोजने की आवश्यकता नहीं है. ऐसा इसलिए कि जो लोग भी इमरोज के रूप में आदर्श देख रहे हैं, वे अपनी संतानों को भी उसी आदर्श की राह पर चलने की अनुमति देंगे? वर्तमान में समाज में कोई विवाहित व्यक्ति यदि इमरोज के इस आदर्श को अपनाना चाहे तो क्या समाज, परिवार इसकी अनुमति देगा? उसको आदर्श मानेगा?


एक पल को यहाँ भी रुकिए और विचार करिए, सिर्फ हमारी बात पर ही विचार न करिए. तीन स्वतंत्र व्यक्तित्व जो अपने-अपने क्षेत्र में सफल थे, जिनके ऊपर किसी भी तरह की पारिवारिक बंदिश का, पारिवारिक जवाबदेही का मसला नहीं था, जिनके पास एक-दूसरे के प्रति जिम्मेवारी, समर्पण का कोई दायित्व, कर्तव्य जैसा कोई भाव नहीं था वे इस तरह के कथित प्रेम का आदर्श सहज भाव में तो स्थापित कर ही सकते हैं. इस पोस्ट को पढ़ने के बाद फिर सोचियेगा, तीनों नामों की जगह पर अपने परिवार के सदस्यों को, बच्चों को रखकर सोचियेगा. आदर्श को हवा में उड़ते देर न लगेगी. 





 

1 टिप्पणी:

  1. पागलपन को प्रेम का आदर्श बनाने का एक और पागलपन है ये।एक बेचारा ज़िंदगी भर भावनात्मक रूप से शोषित होता रहा,भले उसने स्वयं ही ये चुना हो।अमृता न पति की हुईं,न साहिर की और न ही इमरोज की।वाह क्या आदर्श है।किसी न किसी का साथ तो पूरा निभाना चाहिए था बाकियों को खुद से आज़ादी में मदद करनी चाहिए थी अगर दोस्ती थी तो। गंदगी को चांदी का वर्क लगा देने से वो लडडू नहीं हो जाती लोगो को ये समझना चाहिए।

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