24 सितंबर 2017

निम्नतर मानसिकता का विरोध

एक पत्रकार की हत्या होती है और देश भर में एकदम से आक्रोश दिखाई देने लगता है. लोग सड़कों पर उतर आते हैं. चौराहों पर मोमबत्तियाँ जलाई जाने लगती हैं. बड़े-बड़े चैनल, नामधारी पत्रकार संगठित होने लगते हैं, प्रमुख राजनैतिक व्यक्तित्व अपना निर्णय सा सुनाने लगते हैं. बहुतेरे लोग इस हत्या को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताते हैं. कुछ लोगों के लिए यह लोकतंत्र की हत्या कही जाने लगती है. यह सब देख सुनकर लगने लगता है कि क्या देश में वाकई लोकतान्त्रिक व्यवस्था शेष रही भी है या नहीं? इन सबका विलाप सुनकर मन द्रवित हो उठता है और एहसास होने लगता है कि वाकई देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी है ही नहीं. यहाँ बोली का जवाब गोली से दिया जाने लगा है. अभी इस तरह के अनजाने डर से खुद को बाहर निकाल भी न पाए थे कि एक और पत्रकार की हत्या हो जाती है. अबकी मारे जाने वाला पत्रकार अपने पीछे किसी तरह का हंगामा नहीं खड़ा कर पाता है. कोई बड़ा राजनैतिक व्यक्ति उसके समर्थन में आकर बयान नहीं देता है. किसी मीडिया संस्थान की तरफ से कोई प्रदर्शन नहीं किया जाता है. चौराहों पर इकट्ठा होकर नारेबाजी करने, मोमबत्तियाँ जलाने वाले कहीं गायब नजर आते हैं. देश से और न ही विदेश से कोई आवाज़ उठती है कि अब भी देश में बोली का जवाब गोली से दिया जा रहा है. दिमाग भन्ना जाता है कि आखिर हम सब किस युग में जी रहे हैं? क्या हम सबकी इंसानियत महज राजनैतिक विचारधाराओं में ही सिमट कर रह गई है?


मन-मष्तिष्क में उठते अनेक तरह के सवालों के बीच जब दोनों घटनाओं का और अतीत में घटित कई-कई घटनाओं का आकलन करते हैं तो पता चलता है कि विरोध की राजनीति ने, भाजपा-विरोध की राजनीति ने सभी तरह की मानवता का ह्रास कर दिया है. इस विरोध की राजनीति में किसी समय देश की राजनीति का मुख्य केंद्रबिन्दु रहा राजनैतिक दल और उसके तमाम पदाधिकारी हैं. उनका संगठित स्वरूप सिर्फ और सिर्फ भाजपा को, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बदनाम करना है, उनका विरोध करना है. उनके साथ इस खेल में वे वामपंथी ताकतें भी शामिल हैं जो विगत कई दशकों के बाद भी जनमानस के बीच अपनी स्वीकार्यता नहीं बना सकी हैं. इन विरोधी शक्तियों को और ताकतवर बनाने का काम कथित धर्मनिरपेक्ष शक्तियों द्वारा भी किया जा रहा है. इन सबका आंतरिक उद्देश्य किसी न किसी तरह केंद्र सरकार को, भाजपा को, नरेन्द्र मोदी को बदनाम करना है, उनका विरोध करना है. यदि ऐसा न होता तो गौरी लंकेश हत्या के मामले में चंद मिनट बाद ही आरोप न लगाया जाता कि इस हत्या में हिन्दुवादी ताकतों का, संघ का हाथ है. बिना आगापीछा सोचे तमाम बड़े मीडिया संस्थानों द्वारा, मीडिया के बड़े नामों द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाने लगा. देश को अलोकतांत्रिक बताया जाने लगा. यदि इन लोगों को वाकई देश की चिंता होती, यदि इन लोगों को वाकई देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था की चिंता होती, यदि इन लोगों को वाकई अभिव्यक्ति की आज़ादी की चिंता होती तो इनके वही विरोधी मुखर स्वर शांतनु चौधरी की हत्या के बाद भी उभरने चाहिए थे. चिंता की बात तो ये रही कि इस युवा पत्रकार की हत्या पर ऐसा कुछ न हुआ. किसी भी गैर भाजपाई राजनैतिक दल की तरफ से, किसी भी मीडिया संस्थान की तरफ से इस युवा पत्रकार की हत्या पर दो शब्द भी नहीं कहे जा सके.

असल में आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस हो या फिर अस्तित्व की खोज में लगी अनेक कथित धर्मनिरपेक्ष शक्तियां हों, सबका एकमात्र उद्देश बजाय अपने को स्थापित करने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध करना है. इसी के चलते उनके द्वारा अकसर भाषाई संयम खो दिया जाता है. इस भाषाई संयम खोने का उदाहरण कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह और कभी मंत्री रहे मनीष तिवारी के रूप में देखा जा सकता है. देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था का चौथा स्तम्भ मानने वाले पत्रकार भी इस भाषाई संयम को खोने में पीछे नहीं दिखे. ये सारे लोग किसी भी रूप में इस बात को आज भी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि भाजपा केंद्र में सत्तासीन होने के साथ-साथ अनेक राज्यों में अपनी सत्ता जमा चुकी है. वे सब ये भी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस नरेन्द्र मोदी के पीछे सभी साजिशन विगत एक-डेढ़ दशक से पड़े हुए थे, उस व्यक्ति को किसी भी मामले में दोषी सिद्ध न कर सके. उनको ये स्वीकार नहीं हो पा रहा है कि नरेन्द्र मोदी ने न केवल निर्विवाद रूप से सत्ता प्राप्त की वरन लगातार अपनी छवि को भी परिष्कृत किया है. जिस तरह की वोट-बैंक की राजनीति विगत कई दशकों से देश की धुरी बनी हुई थी, मोदी ने उसे दरकिनार करते हुए विकासपरक राजनीति को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया. गैर-भाजपाई मानसिकता वाले दलों, व्यक्तियों, मीडिया संस्थाओं के लिए ये स्वीकार कर पाना अत्यंत दुष्कर होता जा रहा है कि देश के आम जनमानस ने प्रधानमंत्री की अनेक योजनाओं में न केवल उनका समर्थन किया वरन एकाधिक बार उन कठिन परिस्थितियों में भी उनका समर्थन किया जबकि लगने लगा था कि जनमानस विरोध करेगा.


देश के सामने कांग्रेस अथवा अन्य दूसरे दल अपनी मानसिकता के चलते, हिन्दू-विरोधी रवैये के कारण विश्वास जगा नहीं सके. इसी के साथ-साथ समय-समय पर उनके द्वारा उठाये गए पूर्वाग्रही कदमों ने भी जनमानस के मन-मष्तिष्क से इन दलों के प्रति, व्यक्तियों के प्रति विरोधी वातावरण तैयार किया. इस वातावरण को और पुख्ता करने का काम इन्हीं दलों, व्यक्तियों ने समय-समय पर किया. अशालीन, अशिष्ट बयानबाज़ी के चलते भी ये लोग अनजाने ही नरेन्द्र मोदी के पक्ष में, भाजपा के पक्ष में माहौल बनाते नजर आये. कुछ ऐसा ही अब रोहिंग्या मुसलमानों के मामले में दिख रहा है. समझने वाली बात है कि आखिर किसी देश से उनको क्यों भगाया जा रहा है? उनके उस सम्बंधित देश से भागने या भगाए जाने का कारण क्या है? उनको देश में शरण देने के क्या औचित्य हैं? बिना सोचे-समझे सिर्फ मुसलमान होने के नाते रोहिंग्या लोग देश में शरणार्थी नहीं बनाये जाने चाहिए. एक सवाल उनका समर्थन करने वालों से कि आखिर यदि उनके प्रति मानवाधिकार का मुद्दा नजर आ रहा है, संवेदना दिखाई दे रही है तो ऐसा कुछ कश्मीरी हिन्दुओं के पलायन करते समय क्यों नहीं दिखा? तब न सही तो अब क्यों नहीं दिख रहा है? आखिर वे तो किसी दूसरे देश के नहीं, इसी देश के नागरिक हैं, जिस देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को सही करने का स्वयंभू ठेका ये राजनेता, मीडिया संस्थान लेते नजर आते हैं. 

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उक्त आलेख जनसंदेश टाइम्स, 23 सितम्बर 2017 के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है.

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