फिर एक नक्सली हमला हुआ. फिर हमारे कई जवान शहीद हो गये. फिर सरकार की तरफ
से कड़े शब्दों में निंदा की गई. फिर कठोर कदम उठाये जाने की बात कही गई. इस ‘फिर’
में हर बार हमारे जवान ही कुर्बान हो रहे हैं और इस ‘फिर’ का कोई अंतिम समाधान
नहीं निकल रहा है.
परिचयात्मक रूप में नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक
नाम है जो पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ. इसे भारतीय कम्यूनिस्ट
पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र
आंदोलन के रूप में आरम्भ किया था. वे चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग से
प्रभावित थे और मानते थे कि न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही
समाप्त किया जा सकता है. यह सशस्त्र संघर्ष उनकी मृत्यु के बाद अपनी असल विचारधारा
से अलग हो गया. देखा जाये तो वर्तमान में नक्सलवाद सरकार के सामानांतर एक सत्ता
स्थापित करने की मानसिकता से काम कर रहा है. अब इसका उद्देश्य किसी भी रूप में
आदिवासियों को उनके अधिकारों को दिलवाना, अपने वन-जंगलों-संसाधनों पर अपना आधिपत्य
बनाये रखना मात्र नहीं रह गया है. अब उनके द्वारा आदिवासियों की आड़ लेकर राजनैतिक
संरक्षण प्राप्त किया जा रहा है जो कहीं न कहीं उन्हें सत्ता के करीब लाता है.
सत्ता के करीब पहुँचने की इसी स्थिति का दुष्परिणाम ये है कि आज नक्सलवाद भारत की राष्ट्रीय
सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है. देश के 180 जिलों यानि कि भारतीय भूगोल का लगभग
40 प्रतिशत हिस्सा नक्सलवादियों के कब्जे में है जो लगभग 92 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र
में है. यह देश के 10 राज्यों-उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश,
बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल,
छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र,
आंध्रप्रदेश आदि तक फैला हुआ है. इसी इलाके को आज रेड कॉरिडोर के
नाम से जाना जाता है. एक अनुमान के अनुसार लगभग 30 हजार सशस्त्र नक्सली वर्तमान
में इसी विचारधारा से काम कर रहे हैं.
नक्सलवादियों द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों, हजारों की संख्या में लोगों को मौत
के घाट उतार दिया जाता है. कई बार पुलिस मुखबिरी करने के शक में वे आदिवासी भी
शामिल होते हैं, जिनके अधिकारों के लिए लड़ने की बात नक्सली करते हैं. सबसे आश्चर्यजनक
बात ये है कि एक तरफ कॉरपोरेट घरानों द्वारा आदिवासियों की सम्पदा को लूटने की बात
की जाती है दूसरी तरफ पूरी चर्चा में कहीं भी आदिवासी दिखाई नहीं देते हैं. ऐसे में
यदि सरकार को किसी तरह का हल निकालना है तो बातचीत के मोड़ पर नक्सलियों के साथ-साथ
उन आदिवासियों को भी शामिल करना होगा, जिनके अधिकारों का हनन
हो रहा है.
विगत कुछ वर्षों की घटनाओं को देखने में साफ तौर पर समझ आ रहा है कि नक्सलियों
द्वारा अपने प्रभाव को, शक्ति को, राजनैतिक संरक्षण को धन-उगाही के लिए इस्तेमाल
किया जाने लगा है. उनके द्वारा सम्बंधित क्षेत्र में विकास-कार्यों को बाधित करना
उनका मुख्य उद्देश्य बन गया है. वे किसी भी रूप में नहीं चाहते हैं कि क्षेत्र का
विकास हो और आदिवासियों में राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने की मंशा जन्म ले.
वे समूचे क्षेत्र और व्यक्तियों को अपनी हथियारों की सत्ता के अधीन रखना चाहते
हैं. ऐसे में यदि बातचीत एक रास्ता है तो सैन्य कार्यवाही भी एक रास्ता है. सैन्य
कार्यवाही के जवाब में एक तर्क हमेशा आता है कि इसमें निर्दोष नागरिक मारे
जायेंगे. इसके जवाब में बस एक ही सवाल कि क्या नक्सली हमलों में अभी तक निर्दोष
नहीं मारे गए? ‘गेंहू के साथ घुन भी पिसता है’ की बात को दिमाग में रखते हुए सरकार
एक तरफ सैन्य कार्यवाही की छूट देनी चाहिए साथ ही स्थानीय नागरिकों के साथ तालमेल
बैठाते हुए उनका समर्थन हासिल करना चाहिए क्योंकि जब तक स्थानीय नागरिकों का
समर्थन नक्सलियों के साथ है (चाहे स्वेच्छा से अथवा डर से) तब तक समस्त नक्सलियों
को समाप्त करना संभव नहीं. इसके अलावा केंद्र और राज्य सरकारों के मध्य संबंधों को
और बेहतर बनाये जाने की आवश्यकता है. केंद्र द्वारा भेजे गए सुरक्षा बलों व स्थानीय
पुलिस के बीच बेहतर तालमेल बनाये जाने की जरूरत है. नक्सलियों से निपटने के लिए सरकार
को अपनी रणनीति में बदलाव करने होंगे. सोचना होगा कि आखिर संसाधनों के नाम पर,
विकास के नाम पर जंगलों को, वनों को, पहाड़ों को समाप्त कर देने से वहाँ से विस्थापित आदिवासी जायेंगे कहाँ?
यदि उसके द्वारा आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाना
सुनिश्चित है तो उसके द्वारा आदिवासियों को उससे विस्थापित करने की बजाय उन्हें मालिकाना
अधिकार देना होगा.
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि आदिवासी क्षेत्रों से चुने गए जनप्रतिनिधियों
को इन आदिवासियों के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए. सत्यता यही कि नक्सलवाद का अंतिम
समाधान सिर्फ हिंसा नहीं है क्योंकि नक्सलवाद अब एक विचारधारा के रूप में काम कर
रहा है. इसमें राजनैतिक लोगों का सरकार के, सेना के, सुरक्षाबलों के समर्थन में
आना होगा. आदिवासियों एवं आदिवासी क्षेत्रों के चहुंमुखी विकास की बात करनी होगी. यही
नक्सलवाद के निराकरण के लिए रामबाण अचूक औषधि है.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "उतना ही लो थाली में जो व्यर्थ न जाये नाली में “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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