सेलुलर जेल, जहाँ एक तरफ अंग्रेजी शासन
में अमानवीय यातनाओं का केंद्र रहा वहीं दूसरी तरफ आज आज़ाद भारत में क्रांतिकारियों
के तीर्थस्थल के रूप में पहचाना जा रहा है. ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए, जो देश की आज़ादी में न्योछावर हो चुके क्रांतिकारियों के प्रति आदर-सम्मान
का भाव रखता है, सेलुलर जेल किसी भी तीर्थ से कम नहीं है. कभी
सोचा नहीं था कि देश की मुख्यभूमि से हजारों किमी दूर समुद्र के बीच स्थित पोर्ट ब्लेयर
में इस जगह के दर्शनार्थ लोगों का हुजूम पहुँचता होगा. सेलुलर जेल के सामने जब खुद
को साक्षात् खड़ा पाया और अपने साथ क्रांतिकारियों के प्रति सम्मान-आदर का भाव लिए भीड़
को देखा तो लगा कि भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया कितनी भी स्वार्थी क्यों न हो गई हो
मगर उसने अपने वीर शहीदों को विस्मृत नहीं किया है. ऐसे लोग भी दिखे जो महज घूमने के
लिए वहाँ आये हुए थे किन्तु सेलुलर जेल की अमानवीयता से किसी न किसी रूप में परिचित
थे या वहाँ के गाइड के माध्यम से परिचित हो रहे थे, वे सब उन
क्रांतिकारियों के प्रति सम्मान भाव तथा तत्कालीन अंग्रेजी शासन के प्रति घृणा का भाव
प्रदर्शित कर रहे थे.
बाहर से साधारण सी इमारत दिखने
वाली सेलुलर जेल की विशालता का अनुभव मुख्य द्वार को पार करने के बाद होता है. लगभग
बीस-पच्चीस फुट की गैलरी को पार करते ही जेल की वे कोठरियाँ नजर आती हैं जो किसी समय
अमानवीयता का परिचायक रही थीं. यद्यपि गैलरी पार करने के पूर्व गैलरी के दांये-बांये
बने दो विशाल हॉल में प्रदर्शित चित्र एवं अन्य सामग्री जेल की भयावहता का परिचय वहाँ
आये सैलानियों को दे देती है. जेल में बंद क्रांतिकारियों के भोजन हेतु दिए जाने वाले
बर्तन, उनको
पहनने के लिए दिए जाने वाले कपड़े, उनके साथ हुई अमानवीयता की
कहानियाँ आँखों को नम करती हैं.
गैलरी से होते हुए अन्दर जेल प्रांगण
में दाखिल होते ही सामने कोठरियों से बनी दो बड़ी-बड़ी कतारें (विंग्स) दिखाई देती हैं.
बांये तरफ की विंग से कोठरियों के पीछे भाग के दर्शन और दाहिने तरफ की विंग से कोठरियों
के सामने के भाग दिख रहे थे. तीन मंजिला इमारत विशालता और उसकी बनावट अपने आपमें ये
समझाने को पर्याप्त थी कि एक साथ बंद होने के बावजूद वहाँ क्रांतिकारी किस कदर खुद
को अकेला महसूस करते होंगे. तमाम सारे सर्वेक्षण पश्चात् जब अंग्रेजी शासन द्वारा देश
के क्रांतिकारियों का मनोबल तोड़ने के लिए सेलुलर जेल का निर्माण शुरू किया गया तब किसी
ने सोचा भी नहीं था कि देश के क्रांतिकारियों को यातना देने के लिए ऐसी भयावह जेल का
निर्माण करवाया जायेगा. सेलुलर जेल से वर्षों पूर्व 10 मार्च 1858 को प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम के 200 बंदी पहले जत्थे के रूप में अंडमान-निकोबार के विभिन्न द्वीपों पर लाये
गए. इसके बाद तीन अन्य जहाजों- रोमन एम्पायर में 171, डलहौजी में 140,
एडवर्ड में 130 राजनैतिक बंदियों को और लेकर आया गया. इस तरह भारतीय
क्रांतिकारियों के साथ आजीवन कारावास या कहें कि काला पानी की सजा के यातना-अमानवीयता
के पृष्ठ जुड़ने लगे.
सेलुलर जेल का निर्माण कार्य सन
1896 को इन्हीं बंदियों के द्वारा करवाना शुरू हुआ जो सन 1906 में पूरा हुआ. अंग्रेजी
सरकार ने क्रांतिकारियों का मनोबल तोड़ने, उन्हें अमानवीय यातनाएं देने की दृष्टि से ही इस
जेल का निर्माण करवाया था. इस कारण इसकी बनावट भी ऐसी रखी गई जो अपने आपमें अमानवीयता
का परिचायक बनी. पूरी जेल सात कतारों (विंग्स) में बनाई गई. इसमें एक विंग के सामने
दूसरी विंग का पीछे का भाग पड़ता है. सातों विंग्स को एक मुख्य इमारत से जोड़ा गया था,
जिस पर से एकसाथ सातों विंग्स की निगरानी की जा सकती थी. सातों विंग्स
में कुल मिलाकर 689 कोठरियाँ (सेल्स) थीं. इसमें पहली विंग में 105, दूसरी में 102, तीसरी में 150, चौथी में 53, पांचवीं में 93, छठीं
में 60 और सातवीं में 126 कोठरी थीं. प्रत्येक कोठरी 13.5 फुट लम्बी, 7 फुट चौड़ी, 10 फुट ऊँची है. प्रत्येक कोठरी में जमीन
से 9 फुट ऊपर एक 3 फुट और 1 फुट लम्बाई-चौड़ाई वाली खिड़की बनी हुई है. प्रत्येक
कोठरी लोहे के मजबूत फाटक के सहारे बंद होती थी और जिसका हैंडल दीवार में इस तरह
बनाया गया था कि कोठरी के अन्दर के लाख कोशिश के बाद भी उस तक अपना हाथ नहीं
पहुँचाया जा सकता था. यहाँ बंद सेनानियों को दैनिक क्रियाओं के लिए भी छूट नहीं मिलती
थी. एक निश्चित समयावधि के बाद उनको अपनी दैनिक क्रियाएँ उसी कोठरी में संपन्न करनी
पड़ती थीं. शाम को पाँच बजे बंद किये गए वीर सेनानी अगले दिन सुबह छह बजे तक बाहर आने
को तरस जाते थे. यातना की इतनी इन्तिहाँ शायद ही हममें से किसी ने सोची हो.
वर्तमान में जेल की सात विंग्स
में से केवल तीन विंग्स शेष हैं. बाकी चार विंग्स जापानियों द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध
के समय किये गए हमले में तथा तत्कालीन स्थानीय नागरिकों के तोड़-फोड़ में पूरी तरह मिट
चुकी हैं. वहाँ अब एक चिकित्सालय, बाजार स्थित है. ये तो भलमानसता कहिये भूतपूर्व प्रधानमंत्री
मोरार जी देसाई की जिन्होंने सेलुलर जेल के रिहा किये गए राजनैतिक बंदियों और उनके
परिजनों के आग्रह को स्वीकार करते हुए 11 फरवरी 1979 को सेलुलर जेल को राष्ट्रीय स्मारक
घोषित कर दिया.
बहरहाल, हम लोगों ने मुख्य गैलरी
से प्रांगण में प्रवेश किया तो सामने स्थित दो विंग्स के साथ दांयें-बांयें दो स्मारक
और भी दिखाई दिए. एक स्मारक ने जहाँ गर्व की अनुभूति कराई वहीं दूसरे स्मारक को देखकर
शरीर में झुनझुनी फ़ैल गई. बांयी तरफ अमर शहीदों की स्मृति में प्रज्ज्वलित स्वतंत्रता
ज्योति और एक स्तम्भ के दर्शन हुए जबकि दाहिनी तरफ वीर क्रांतिकारियों को मौत की नींद
सुलाने के लिए बनाया गया फाँसी घर दिख रहा था. फाँसी घर में एकसाथ तीन क्रांतिकारियों
को फाँसी देने की व्यवस्था अंग्रेजी सरकार ने कर रखी थी. ज़ुल्म और यातनाओं के बाद भी
अंग्रेजी शासन का मन नहीं भरता था शायद इसी कारण से फाँसी घर के ठीक बगल में तिरष्कृत
कोठरियों का निर्माण करवाया गया था. यहाँ उन राजनैतिक बंदियों को रखा जाता था जिन्हें
फाँसी की सजा दी जा चुकी है किन्तु उसकी पुष्टि गवर्नर जरनल से नहीं हो सकी है. स्पष्ट
है कि ऐसे वीरों के मन में मौत के लिए दहशत पैदा करना उन अंग्रेजों का मकसद था किन्तु
आज़ादी के वीर मतवाले इससे भय खाने वालों में से नहीं थे. इसी फाँसीघर के बगल में बना
हुआ रसोईघर आज भी स्थित है. यहाँ हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग रसोई घरों की
व्यवस्था अंग्रेजों द्वारा की गई थी. इसके द्वारा वे उन क्रांतिकारियों में आपस में
फूट डालना चाहते थे.
इन्हीं तिरष्कृत कोठरियों के ठीक
ऊपर दूसरी मंजिल पर वीर सावरकर को कैद किया गया था. जिस कोठरी में उनको कैद किया गया
था वो आज सावरकर कोठरी के नाम से जानी जाती है, जो वहाँ आये दर्शनार्थियों के लिए पूज्य है. ये
अपने आपमें गर्व का विषय है कि देश के क्रांति इतिहास में वीर सावरकर एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी
हैं जिन्हें दो बार काला पानी की सजा हुई. वे अकेले क्रांतिकारी हैं जो अपने भाई के
साथ सेलुलर जेल में कैद थे और पूरे एक साल तक उनके भाई को खबर नहीं हो सकी कि वीर सावरकर
भी वहाँ कैद हैं. वीर सावरकर अथाह सागर की चिंता किये वगैर एक बार जेल को तोड़कर भाग
चुके थे ऐसे में दोबारा उनके आने पर जेल प्रशासन अत्यंत चौकन्ना और भयभीत था. एकमात्र
उन्हीं को उनकी कोठरी में एक अतिरिक्त फाटक के द्वारा कैद किया गया था.
इसी प्रांगण में दाहिने हाथ पर
ही उस तेल मील के चिन्ह उपस्थित हैं जिसका आधार लेकर वहाँ के बंदियों पर अत्याचार किये
जाते थे. एक राजनैतिक बंदी को प्रतिदिन तीस पौंड नारियल का तेल या फिर दस पौंड सरसों
का तेल निकालना होता था. जो किसी भी सामान्य व्यक्ति की क्षमता से परे था. इसके अलावा
जूट की रस्सी बनाने का काम भी इनके जिम्मे आता था. ये काम न हो पाने की दशा में उन
बंदियों को लोहे की बनी एक तिपाही पर बांधकर नग्नावस्था में बेंत मारने की सजा दी जाती
थी. जेल प्रांगण में स्थित वे उपकरण, लोहे की बनी तिपाही देखकर बरबस ही आँखें नम हो गईं,
देह में सिरहन दौड़ गई. एहसास हुआ कि वाकई किस तरह के अमानुषिक अत्याचार
सहकर हमारे वीर सेनानियों ने हमारे लिए आज़ाद हवा-पानी का इन्तेजाम किया.
सातों विंग्स, वर्तमान में तीन को एकसाथ
जोड़ती केन्द्रीय मीनार के सहारे इन विंग्स की छत पर खुली हवा में आज साँस ली जा सकती
है. किसी समय कोठरी के बाहर स्थित चार फुट के बरामदे में भी साँस लेना दुर्लभ था. इसी
केन्द्रीय मीनार में यहाँ के राजनैतिक बंदियों के नामों का उल्लेख करते हुए शिलालेख
स्थित हैं. ऊपर आकर तीन तरफ विशाल समुद्र दिखाई देता है. एक तरफ सामने अवश्य ही रॉस
आयलैंड दिखाई देता है, जहाँ आज तिरंगा फहराता है पर कभी यूनियन
जैक लहराया करता था. इस आयलैंड को अंग्रेजी अधिकारी के निवास के तौर पर प्रयोग में
लाया जाता था. वे देश के क्रांतिकारियों से इतने भयभीत रहते थे कि रहने के लिए पोर्ट
ब्लेयर से दूर समुद्र के बीच रॉस आयलैंड में आये.
सेलुलर जेल का अपना इतिहास है.
कई कैदी यहाँ की अमानवीय यातनाओं को सहते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. कई क्रांतिकारियों
को फाँसी के द्वारा मौत की नींद सुला दिया गया. वहाँ के क्रांतिकारियों की भूख हड़ताल
से, उनके संघर्ष
से सभी राजनैतिक बंदियों को मुख्यभूमि की जेलों में स्थानांतरित कर दिया गया. हालाँकि
सेलुलर जेल में आतंक का दौर इसके बाद भी जारी रहा. अंग्रेजों के बाद जापानियों ने दूसरे
विश्व युद्ध में यहाँ कब्ज़ा करके अपना आतंक फैलाया. बहरहाल, देश
की आज़ादी के बाद सभी राजनैतिक बंदियों को यहाँ से मुक्ति मिली. इसी सेलुलर जेल के ठीक
सामने बने वीर सावरकर पार्क में सावरकर जी की प्रतिमा के साथ-साथ भूषण रॉय, बाबा भानसिंह,
मोहित मोइत्रा, पंडित रामरक्षा बाली, महावीर सिंह, मोहन किशोर नामदास की मूर्तियाँ स्थापित
हैं, जिन्होंने अमानवीय यातनाएं सहते हुए इसी जेल में अंतिम साँस
ली.
आँखों में नमी, दिल में श्रद्धा-भाव,
मन में गर्व की अनुभूति करते हुए वास्तविक तीर्थस्थान से जब बाहर निकले
तो किसी लेखक की ये पंक्तियाँ मन सहज ही कह उठा कि
मत कहो इसे कालापानी, यह तीरथ वीर जवानों का,
आज़ादी के परवानों का, भारत माँ की संतानों का.
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 06 मार्च 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "अरे प्रभु, थोड़ा सिस्टम से चलिए ... “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबड़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंकितनी यातनाएं झेली तब हमें आजादी मिली, लेकिन आज दुःख होता है आजादी के नाम पर लूटमार, स्वयम्भू बने राजा महाराजा टाइप लोगों को देखकर। .
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी प्रस्तुति
अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा वर्णन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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