एक
मोहतरमा ने पूरी बिलबिलाहट के साथ इनबॉक्स में प्रवेश किया और भट्ट से दे मारा कि यदि
हम महिलाएँ हैप्पी टू ब्लीड को लेकर आगे आ रही हैं तो आपको क्या समस्या है, अथवा
आप पुरुष वर्ग को क्या आपत्ति है? उनकी बात अपनी जगह पूरी तरह सही थी, आखिर हमें
अथवा पुरुष वर्ग को महिलाओं के किसी कदम से आपत्ति क्यों होनी चाहिए? आखिर आप अथवा
आपका पुरुष वर्ग क्या जनता-समझता है मासिक धर्म के बारे में? उनको जो समझाया, उसी
का विस्तृत रूप मात्र इतना ही है कि हैप्पी टू ब्लीड में उत्साह से भाग लेने वाली,
अपनी सलवार पर लाल दाग को अच्छा बताने वाली महिलाओं से कोई आपत्ति नहीं है. हाँ,
आपत्ति है तो किसी भी कदम के प्रस्तुतीकरण से. यदि इस समाज में अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता आपको इसकी आज़ादी देती है कि आप मासिक-धर्म के दौरान बिना नैपकिन के
रहें, अपने कपड़ों पर लगते दागों का प्रदर्शन करें तो यही समाज इसकी भी आज़ादी देता
है कि हम अपने मन से किसी भी कदम का समर्थन अथवा विरोध कर सकें. समाज की कुछ अतिशय
जागरूक महिलाओं के द्वारा हैप्पी टू ब्लीड जैसा कदम महज इसलिए उठाया गया क्योंकि
किसी मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के समय उनके मासिक धर्म सम्बन्धी जाँच की बात
कही गई. ऐसे कदम की पहरुआ महिलाएँ बताएँ कि क्या कोई ऐसी मशीन वाकई बन गई है जो
बाहरी शारीरिक स्पर्श से किसी महिला के बारे में बता सके कि वो मासिक धर्म से गुजर
रही है अथवा नहीं? मेरी अपनी जानकारी में संभवतः ऐसा कुछ नहीं है. ऐसे में हैप्पी
टू ब्लीड जैसे कदम का उठाया जाना उस मंदिर के प्रबंधकों द्वारा लिया गया निर्णय
नहीं वरन अपने आपको मीडिया की निगाह में लाना है.
इसके
अलावा जहाँ तक बात मासिक धर्म को जानने न जानने की है तो ये सच है कि ऐसी बातों को
जानने-समझने की एक उम्र होती है. एक उम्र थी हमारी, जबकि आज की तरह न तो हाथों में
स्मार्ट फोन थे और न ही इंटरनेट की सुविधा. तब जानकारियों के प्रसारण में अनेक तरह
की बाध्यताएं थीं. ऐसी ही बाध्यता के बीच ज्ञान नहीं था कि लाल रंग से भीगे रुई के
टुकड़े में, कपड़े के टुकड़े में किसी चोट का खून नहीं वरन नारी देह की नैसर्गिकता
छिपी हुई है. इसके बाद जब चोट के रक्त और मासिक धर्म के रक्त का अंतर समझ आया तो उसके
साथ ही ये भी समझ आया कि ये किसी महिला को सम्पूर्ण करता है, उसको मातृत्व का सुख
प्रदान करने का संकेत देता है. किसी महिला को मासिक धर्म होने का अर्थ उसके लिए
शर्म नहीं वरन गर्व का, उसकी सम्पूर्णता का विषय होता है. इसी संदर्भ में आपको
बताते चलें कि हमारी एक मित्र को अपनी शारीरिक उलझनों के चलते दैनिक कार्यों में
अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है. नित-प्रति बढ़ती उसकी समस्याओं को देखकर उसके
परिवार वालों ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसको गर्भाशय निकलवाने की सलाह दे डाली,
जिसका उद्देश्य उसको प्रतिमाह पाँच दिनों की कठिनाई से छुटकारा दिलाना था. उस
साहसी युवती ने अपने परिवार के ऐसे निर्णय का विरोध ये कह कर किया कि वो अधूरी
महिला होकर जीना नहीं चाहती. सोचिये, जहाँ एक युवती को नित्य प्रति अपने ही शरीर
की दिक्कतों से दो-चार होना पड़ रहा हो, उसके बाद भी वो मासिक धर्म को अपने स्त्री
होने की सम्पूर्णता मानती है वहीं आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल कुछ महिलाएँ
हैप्पी टू ब्लीड के बहाने सम्पूर्ण स्त्रियों के मातृत्व को शर्मसार करने में लगी
हैं.
ये
अवश्य हो सकता है कि किसी मंदिर प्रबंधन के द्वारा अतिशयता में आपत्तिजनक निर्णय
लिया गया हो पर ऐसी महिलाएँ अपने घर-परिवार पर दृष्टि डालें. ऐसे कदम का समर्थन कर
रही महिलाओं से एक ही सवाल कि ऐसा हैप्पी टाइप कोई कदम उन्होंने तब उठाया था जबकि
उनकी दादी ने, माँ ने, सास ने, परिवार की किसी बुजर्ग आदि ने उनको रसोई में, मंदिर
में जाने से रोका था? क्या ऐसी महिलाओं को मासिक धर्म के समय उनकी माओं ने, उनके
परिवार की बुजुर्ग महिलाओं ने, उनको सासों ने नहीं रोका था? अब जबकि परिवार के नाम
पर पति-पत्नी रह गए हैं तो क्या वे उन पाँच दिनों में भी पूर्ण स्वतंत्रता का
अनुभव नहीं करती हैं? बाज़ार द्वारा ऐसे दिनों में भी स्वतंत्रता का एहसास करने के
लिए अत्याधुनिक, अनेकानेक साइज़ में नैपकिन उपलब्ध नहीं करवाए जा रहे हैं? क्या
हैप्पी टू ब्लीड के नाम से समाज में एक अजब तरह की गंद फैलाती इन महिलाओं ने अपने
परिवार की महिलाओं के विरोध में ऐसा कोई मोर्चा खोला था? नए-नए नैपकिन बनाती
कंपनियों के विरुद्ध भी कोई मोर्चा खोलकर वे अपने हैप्पी टू ब्लीड अभियान को सफल
बनाने का उपक्रम करेंगी? निश्चित रूप से इन महिलाओं ने न ऐसा किया था और न ही ऐसा
कुछ करने जा रही हैं.
सत्यता
ये है कि वर्तमान में उपस्थिति का संकट सबके सामने है, स्त्री-सशक्तिकरण की पहरुआ
बनती स्त्रियों के सामने भी ऐसी समस्या है. ऐसे में उनको कोई न कोई एक ऐसा विषय
चाहिए जो घर बैठे प्रसिद्धि पाने का माध्यम बन सके. सोचने का विषय मात्र ये है कि
क्या वाकई हैप्पी टू ब्लीड जैसे अनावश्यक कदम उठाये जाने से वे समस्याएं दूर हो
जाएँगी जिन्हें महिलाओं के मासिक धर्म से जोड़कर देखा जाता है? क्या अपने इस अभियान
को सफलता दिलाने के लिए ये महिलाएँ अपने घर की सभी स्त्रियों को हैप्पी टू ब्लीड
के नाम पर नैपकिन सुरक्षा प्रणाली से दूर रखने का कार्य करेंगी? इस अभियान के नाम
पर क्या ये महिलाएँ वाकई उन पाँचों दिनों में बिना किसी साधन के अपने
नित्य-कार्यों को संपन्न करने का साहस जुटाएंगी? समस्या इतने पर ही आकर नहीं ठहरती
दिख रही है. असल समस्या तो शायद उस दिन शुरू हो जबकि हैप्पी टू ब्लीड जैसे
अनावश्यक कदमों का समर्थन करने वाली महिलाएँ स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों को
परदे के भीतर से निकाल कर घर के आँगन में उतार दें; सड़क पर नुमाईश बनाकर रख दें;
बाज़ार में उसकी प्रदर्शनी बना दें.
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