11 जून 2013

एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ...एक काटेगा तो दूसरा डसेगा



भाजपा ने मोदी के नाम की घोषणा चुनाव प्रचार अभियान के प्रमुख के रूप में की तो तमाम गैर-भाजपाइयों के दिल पर साँप लोट गया मानो उनके हाथ से आज ही सत्ता निकल गई हो. विरोधी दलों के साथ-साथ मीडिया पूरे जोर-शोर से नरेंद्र मोदी के नाम पर सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने में लगे हैं. सबकुछ इस तरह से प्रदर्शित किया जा रहा है मानो मोदी का नाम सिर्फ और सिर्फ दंगे का सूचक हो. बहरहाल, आज देश की राजनैतिक स्थिति विभ्रम पैदा करने वाली है. किसी भी एक दल, किसी भी एक व्यक्ति के पक्ष में पूरे दावे के साथ सभी का खड़ा होना संभव सा नहीं दीखता. किसी एक की तरफ उँगली करने पर बाकी की चार उँगलियाँ वापस बाकी सभी की तरफ इशारा करती हैं. इस विभ्रम की स्थिति में वो व्यक्ति नहीं होता है जो बिना किसी विचार के सिर्फ और सिर्फ अपने समर्थक दल के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करता है. समस्या का शिकार वह व्यक्ति होता है जो सिर्फ और सिर्फ आम मतदाता है. मीडिया के द्वारा जिस तरह से मोदी का सांप्रदायिक चरित्र दिखाया जा रहा है, समूची भाजपा अछूत की भांति दिखाई जा रही है उसके बाद यदि किसी और दल को वोट करने का विचार आम मतदाता बनाये भी तो प्रमुख-प्रमुख दलों की स्थिति से और भी भ्रम के हालात बनते हैं. उसे समझ में नहीं आता कि 
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१- क्या उस कांग्रेस को वोट दिया जाए जिसके पास १९८४ के नरसंहार करवाने का अलंकरण है. उसके तत्कालीन पदाधिकारियों, वरिष्ठ नेताओं ने खुलेआम निर्दोष सिखों को खुलेआम मौत के घाट उतारा था. इस पर विद्रूपता ये कि बजाय आंसू बहाने के, कोई क्षोभ जताने के कहा ये गया कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती में कम्पन होता है. ये वही दल है जिसने किसी समय में लोंगोवाल, भिंडरावाले को पैदा किया था. स्वार्थपरक राजनीति के कारण आपातकाल जैसे कदमों को उठाया था और वर्तमान में सैकड़ों घोटालों, भ्रष्टाचार के अलंकार भी इसी दल में शोभायमान हो रहे हैं.
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२- इससे इतर क्या उस सपा को वोट किया जाए जिसके सामने सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम वोटबैंक प्रभावी रहता है. किसी न किसी रूप में एक तरह का सांप्रदायिक स्वरूप देश-प्रदेश में इस दल के द्वारा बनाया जाता रहा है. हाल में इस दल द्वारा उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटबैंक के लालच में आतंकवादियों से मुक़दमे वापस लेने की कवायद की जा रही है. ये तो भला हो अदालत का जिसने ऐसे सांप्रदायिक कदम को रोक दिया. यदि निर्दोषों के खून के छींटे भाजपा, कांग्रेस के दामन पर लगे हैं तो ये दल भी इससे बचा नहीं रह सका है. ये वही दल है जिसके ऊपर १९९० में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाए जाने का दाग है.
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३- अब यदि मतदाता एक बारगी बसपा को वोट देने का मन बना भी ले तो उसे बसपा में जातिगत विभेद को और बढ़ाने का आरोप दीखता है. शायद मीडिया उस बात को भूल गई हो किन्तु कोई आम भारतीय अभी तक नहीं भूला होगा कि इसी बसपा का कभी नारा हुआ करता था 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार'. वर्तमान में बसपा द्वारा भले ही दलित-ब्राह्मण, दलित-क्षत्रिय, दलित-सवर्ण गठजोड़ बनाने की कोशिश की गई हो पर वे सभी कोशिशें सिर्फ और सिर्फ सत्ता के लिए ही रहीं. इसके बाद भी बसपा का जातिगत विभेद को पाटने का काम न होकर जातिगत विभेद बढ़ाने का काम ही होता रहता है. किसी समय में बुन्देलखण्ड क्षेत्र में ‘मुहर लगेगी हाथी पर वरना गोली छाती पर’ का नारा बुलंद करने वाले बसपा कार्यकर्त्ता रहे हों या फिर एससी/एसटी एक्ट में निर्दोषों को जबरन फंसाए जाने का कुचक्र रहा हो, सभी में विद्वेष की बू ही आती दिखती है.
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४- या फिर मतदाता लालू, शरद, पासवान, ममता, अजीत, जयललिता, करुणानिधि, शिबू सोरेन आदि तमाम मौकापरस्त नेताओं के लिए वोट करे, जिनका काम सिर्फ और सिर्फ मौका ताड़कर अपना उल्लू सीधा करना रहा है. इन तमाम नेताओं को, इनके दलों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि वे आपस में किस तरह का व्यवहार करते हैं. चुनाव आते ही मोर्चा बनाने की कवायद इनके द्वारा शुरू हो जाती है और सभी प्रमुख नेताओं द्वारा प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने शुरू कर दिया जाता है. इनकी मौकापरस्ती के चलते इनकी निष्ठां सिर्फ और सिर्फ कुर्सी से रहती है. कोई गठबंधन, कोई मोर्चा, कोई सरकार इनके लिए मायने नहीं रखती है. ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’ जैसा सूत्रवाक्य इनके लिए प्रमुख होता है.
ऐसे में जबकि सभी दल हमाम में नंगे की तरह से प्रतीत हो रहे हों तो क्या भाजपा, क्या कांग्रेस; क्या एनडीए, क्या यूपीए; क्या सपा, क्या बसपा; क्या सांप्रदायिक, क्या धर्मनिरपेक्ष, क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम; क्या दलित, क्या सवर्ण....सब एक थैली के चाटते-बट्टे हैं. देखा जाये आम मतदाता के लिए ‘एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ....एक काटेगा तो दूसरा डसेगा’ वाली स्थिति में दिखते हैं ये राजनैतिक दल.
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