13 दिसंबर 2011

जनसेवा और सुरक्षामेवा, ये दोनों साथ नहीं चलते


अन्ना पर हमले की आशंका व्यक्त की जा रही है, उनकी और उनकी टीम की सुरक्षा को लेकर किये गये इंतजाम को लेकर भी चर्चा की जा रही है और इस पर तमाम सारे विचार-विमर्शों का दौर चल पड़ा है। इसी घटना के साथ ही एक और घटना आई है शाहरुख की सुरक्षा को लेकर हुए इंतजाम को लेकर। ये दो घटनायें आज के दौर में प्रतीक मात्र हैं। हमारे नेतागण, थोड़ी बहुत भी प्रसिद्धि पाये व्यक्ति भी सरकार की ओर से अपनी सुरक्षा के इंतजाम के लिए उत्सुक दिखाई देते हैं। हमारे देश के नेताओं पर तो सुरक्षा-व्यवस्था में बहुत बड़ा धन खर्च होता है।

इधर देखने में आया है कि राजनैतिक व्यक्तित्वों के अतिरिक्त तमाम सारे प्रसिद्ध व्यक्तियों की सुरक्षा व्यवस्था में हमारे देश की पुलिस का, सुरक्षा एजेंसियों का बहुत बड़ा भाग लगा रहता है, व्यय भी बहुत अधिक होता है। यह आज तक हमारी समझ से बाहर का विषय रहा है कि किसी की प्रसिद्धि का उसकी जान से अचानक कैसे सम्बन्ध हो जाता है और माना कि यदि हो भी जाता है तो इसके खर्चे का भार किसी न किसी रूप में आम जनता पर, सरकारी खजाने पर क्यों पड़े? इस मुद्दे पर पहले भी कई बार हमारी ओर से लिखा जा चुका है और हमारे साथ के कई मित्रों की ओर से विरोधात्मक स्वरों का सामना भी करना पड़ा है किन्तु इस बात को आज भी कहने में कोई संकोच नहीं कि किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि का बोझ हमें उठाना पड़े।

किसी भी खेल के द्वारा, किसी भी फिल्म के द्वारा, किसी भी कार्य के द्वारा यदि व्यक्ति को प्रसिद्धि मिलती है तो यकीनन उसको अपने आसपास देखकर प्रत्येक व्यक्ति को प्रसन्नता होती है, वह गौरवान्वित सा महसूस करता है। ऐसी स्थिति में सम्बन्धित जगह के प्रशासन का यह तो कर्तव्य हो सकता है कि उसकी सुरक्षा व्यवस्था इस प्रकार से करे कि उसको कोई खतरा न हो पर क्या यही कर्तव्य प्रशासन द्वारा सड़क पर घूम-टहल रहे आम आदमी के प्रति भी पालन किया जाता है? हम देखते हैं कि आये दिन आम आदमी सड़कों पर गाड़ियों की चपेट में आकर, किसी भी आपराधिक घटना के कारण मृत्यु के आगोश में चला जाता है; अजन्मी बच्चियां मौत की नींद सोने को मजबूर हो रही हैं; महिलायें अपनी इज्जत-आबरू के साथ-साथ अपनी जान तक गंवा दे रही हैं; जनआन्दोलन से जुड़े ऐसे कर्मठ व्यक्ति जो व्यापक रूप से प्रसिद्धि नहीं पाये हैं किन्तु परिवर्तन की आधारशिला भी बन चुके हैं ऐसे लोगों को भी सरेराह मौत के घाट उतार दिया जाता है...क्या प्रशासन का, सरकार का इनकी सुरक्षा का जिम्मा नहीं है?

माना कि अन्ना हजारे, उनकी टीम, शाहरुख खान आदि आज मीडिया के कारण राष्ट्रीय परिदृश्य पर छा गये हैं पर वे लोग भी इनसे किसी भी रूप में कम नहीं जो जनपद स्तर पर, ग्राम स्तर पर परविर्तन की अलख जगाये हैं। हमारा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि राजनीति, जनसेवा का क्षेत्र व्यक्ति स्वतः अपनी मर्जी से चुनता है उसे किसी ने आमंत्रित नहीं किया होता है, ऐसे में उसे समाज के भीतर अपने विरुद्ध पनप रहे आक्रोश, सामाजिक स्थिति में उत्पन्न होते खतरे का भी भान होता है तब उसे इन क्षेत्रों में व्यापक सोच के साथ कदम रखने की आवश्यकता होती है। यदि इस प्रकार से मीडिया के द्वारा प्रसिद्धि पाये व्यक्तियों के लिए सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर विचार-विमर्श किया जाने लगेगा तो फिर हमारा और हमारी सुरक्षा एजेंसियों का यह भी कर्तव्य बनता है कि हम पुलिस सेवा में लगे लोगों की, सेना में कार्य कर रहे लोगों के लिए भी सुरक्षा-व्यवस्था मुहैया करवायें। आखिर इनकी जान से ज्यादा खतरा किसे होगा, न तो नेताओं को, न खिलाड़ियों को, न फिल्म वालों को और न ही जनसेवा से जुड़े लोगों को।

जनसेवा, सामाजिक क्षेत्र वह क्षेत्र है जहां आप परिवर्तन करने निकलते हैं और परिवर्तन सुरक्षा व्यवस्था में, सुरक्षा घेरे में रह कर नहीं किये जाते हैं। यदि ऐसा होता तो देश के समूचे परिवर्तनों के लिए राजनैतिक दलों के नेताओं को ही याद किया जाता जो सिवाय सुरक्षा घेरे में रहने के और कुछ भी नहीं करते हैं। वर्तमान में तो आवश्यकता भ्रष्टाचार के साथ-साथ इस अप्रत्यक्ष भ्रष्टाचार से निपटने की भी है, आखिर हम अपने चुने हुए प्रतिनिधि से मिलने के पहले उनकी सुरक्षा-व्यवस्था को संतुष्ट करते फिरें तो फिर वे हमारे प्रतिनिधि कहां रह गये? अन्ना और उनकी टीम भी पूरे जोश के साथ कार्य करे, प्रशासन का, सरकार का मुंह न ताके...वो याद रखे कि उनका कार्य देश की उस जनता के लिए है जिसका बहुत बड़ा भाग आज भी असुरक्षित रूप से घर के बाहर निकलता है और शाम को घर वापसी पर उसके परिवार के लोग चैन की सांस लेते हैं। सुरक्षा घेरा पाकर अन्ना और उनकी टीम जनता को गंवा देगी भले ही अपनी जान को बचा ले।



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