भ्रष्टाचार बढ़ाने के दो ठोस कदम।
एक कदम उठाया जा रहा है चुनाव आयोग की तरफ से, जिसका कार्य देश में चुनावों को निष्पक्ष तरीके से सम्पन्न करवाना है। इसके साथ ही उसका कार्य यह भी बनता है कि वह चुनाव में होने वाली धांधली को भी रोके। जहां तक याद पड़ता है किसी समय में चुनाव आयोग ने बढ़ते चुनावी खर्च को लेकर चिन्ता व्यक्त की थी और इसी के चलते चुनाव प्रचार के बहुत से माध्यमों को समाप्त कर दिया गया है।
इसके बाद भी चुनाव आयोग ने सरकार के पास प्रस्ताव भेजा है जिसमें उसने सांसदों के चुनाव की खर्च सीमा को 20 लाख से बढ़ाकर 40 लाख रुपये करने और विधायकों के चुनाव की खर्च सीमा को 10 लाख से बढ़ाकर 16 लाख रुपये किये जाने की सिफारिश की है। इसका अर्थ हुआ कि यदि यह प्रस्ताव मान लिया गया तो एक सांसद प्रत्याशी 40 लाख रुपये और विधायक प्रत्याशी 16 लाख रुपये तो खर्च करेगा ही। आज के दौर में जबकि सांसद के चुनाव में बाहुवली-धनबली 40 लाख से कहीं अधिक खर्च कर बैठते हैं और विधायक के चुनावों में भी खर्च का कोई हिसाब नहीं बैठता तब इस तरह के प्रस्ताव क्या धांधली को, फिजूलखर्ची को और नहीं बढ़ायेंगे।
चुनाव आयोग स्वयं बताये कि जब किसी भी चुनाव में पोस्टर पर, बैनर पर, होर्डिंग पर, वॉल पेंटिंग पर, लाउडस्पीकर पर, वाहनों की अत्यधिक संख्या पर, विज्ञापन की अतिशयता आदि पर रोक है तो 40 लाख रुपये की सीमा रेखा किस लिए?
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इसी तरह से दूसरा उदाहरण है उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नगर पालिका संशोधन बिल पेश करने सम्बन्धी। इसमें अब इस तरह की व्यवस्था की जा रही है कि नगर पालिका के अध्यक्ष/मेयर आदि का चुनाव सीधे जनता के द्वारा न होकर नगर पालिका के चयनित वार्ड सदस्यों/पार्षदों के द्वारा होगा। इस तरह की व्यवस्था वर्तमान में जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में लागू है।
जिला पंचायत अध्यक्ष का पद देखा जाये तो जनता के सीधे सम्पर्क में नहीं रहता है तो उसका निर्वाचन आनुपातिक प्रणाली से किया जाना तो उचित समझ में आता है किन्तु नगर पालिका के अध्यक्ष/मेयर का सम्पर्क जनता से सीधे-सीधे रहता है। ऐसे में आनुपातिक प्रणाली से उसका निर्वाचन करना सिर्फ और सिर्फ सत्ता पक्ष को लाभ के साथ-साथ धन के दुरुपयोग को बढ़ावा देना ही है।
जैसा कि अभी हाल में सभी ने देखा है कि जिला पंचायत के चुनावों में लाखों रुपये से लेकर करोड़ों रुपये खर्च हुए हैं, अध्यक्ष के निर्वाचन हेतु, सदस्यों के निर्वाचन हेतु। ऐसी हालत में नगर पालिका अध्यक्ष के चुनाव में भी करोड़ों रुपये के लेन-देन का मामला दिखाई देने लगेगा।
समझ में नहीं आता है कि एक ओर सरकार तथा अन्य सभी राजनैतिक दल भ्रष्टाचार मुक्त समाज की चर्चा कर रहे हैं; देश में निष्पक्ष लोगों के क्षेत्र में आने की बात कर रहे हैं; सभी दल अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को रोकने की कवायद कर रहे हैं; धन-बल के कम से कम प्रयोग की बात कर रहे हैं वहां चुनाव खर्च सीमा को बढ़ाने की सिफारिश, नगर पालिका संशोधन बिल का पेश किया जाना सरकार के तथा सरकारी तन्त्र के दोमुंहे व्यक्तित्व को दर्शाता है।
ऐसे तो देश में सुधार होने से रहा।
सही कहा आपने। विचारणीय है।
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