09 जनवरी 2011

आक्रोशित जनमानस की आवाज़ को भी सुनना होगा


बिहार में भाजपा विधायक की हत्या की खबर आई है तो इधर उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में भीड़ द्वारा एक उप-निरीक्षक की हत्या कर दी गई। बिहार की घटना में विधायक की हत्या करने वाली एक महिला रही। इस महिला के बारे में पुलिस ने बताया है कि उसने दिवंगत हो चुके विधायक के खिलाफ छाह माह पूर्व यौन शोषण की रिपोर्ट पुलिस में की थी। छह माह के बाद भी उस पर किसी तरह की कार्यवाही नहीं की जा रही थी।


चित्र गूगल छवियों से साभार

उत्तर प्रदेश की घटना में भी भीड़ का आक्रोश पुलिस व्यवस्था को लेकर था। किसी बात को लेकर थाने में जमा भीड़ में से किसी ने फायर करके सब-इंस्पेक्टर की हत्या कर दी। हालांकि इस घटना को नक्सलवाद से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। देखा जाये तो नक्सलवाद का उदय ही इस तरह की परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हुआ है।

बिहार की विधायक की हत्या के मामले को देखा जाये तो आसानी से प्रथम दृष्टया यह साबित होता है कि दोषी महिला किसी न किसी रूप में व्यवस्था से परेशान थी। ऐसी हालत में जबकि उसे कानून से न्याय नहीं मिला तो उसने स्वयं ही कानून अपने हाथ में लेकर अपने अपराधी को सजा सुना दी।

दोनों घटनाओं में कारण कुछ भी रहे हों; अब घटनाओं के हो जाने के बाद प्रशासनिक स्तर पर क्या लीपापोती कर दी जाये; अपराधियों को सजा मिले अथवा नहीं; वास्तविक दोषी किसे करार दिया जाये, किसे नहीं, यह तो अलग विषय हो गया है किन्तु इन दोनों घटनाओं ने जो सवाल खड़ा किया है उसे समझना आवश्यक हो जाता है।

समाज में कानून व्यवस्था रही हो अथवा राजनीतिक व्यवस्था दोनों का उद्देश्य मानव कल्याण के साथ-साथ समाज कल्याण, देश कल्याण भी था। इधर देखने में आ रहा है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार ने समूचे समाज के लिए दीमक का काम किया है। कानून किसी न किसी रूप से राजनीतिज्ञों के हाथों का हथियार होता जा रहा है। इस बात को सिद्ध करने के लिए किसी विशेष सबूतों अथवा गवाहों की आवश्यकता नहीं होती है। हम आसानी से अपने आसपास घटित होती घटनाओं को देख सकते हैं और समझ सकते हैं कि कैसे राजनीति के लिए कानून को अपनी तरह से चलाया जा रहा है।

समाज में सुरक्षा की अवधारणा को पुष्ट करने के लिए निर्धारित किये गये नियमों और कानूनों को आम-आदमी के द्वारा पालन करवाने और उन्हीं नियमों-कानूनों के आलोक में आम-आदमी की सुरक्षा का विधान बनाये जाने के लिए प्रशासनिक व्यवस्था का निर्धारण किया गया है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था का एक अंग पुलिस को कहा जा सकता है। वर्तमान में पुलिस व्यवस्था का अधिसंख्यक कार्य राजनीतिज्ञों के आदेशों के परिपालन का हो गया है। किसी भी रूप में इस व्यवस्था का प्रयास जन-सुरक्षा के बजाय यह रहता है कि कैसे सत्ताधारियों की, रसूखधारियों की रक्षा हो सके। इसके लिए चाहे आम-आदमी पर, मासूमों पर, छात्रों पर, महिलाओं पर, विकलांगों पर, असहायों पर लाठीचार्ज अथवा गोलीबारी ही क्यों न करनी पड़ जाये।

सामाजिक सुरक्षा के लिए, सामाजिक विकास के लिए कार्य करने के लिए बने विधानों का जब राजनीतिक रूप से उनके लिए ही कार्य करना शुरू कर दिया जाये तो जाहिर है कि उनका जनता के प्रति दायित्व समाप्त सा होने लगता है। इस प्रकार की अघोषित सत्ता से आमजन कभी भी सुखी और प्रसन्न नहीं रह सका है।

वर्तमान में घटित ये दोनों घटनाएँ कुछ इसी प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं और दर्शाती हैं कि आने वाले समय में राज्य की शक्ति और कानून की शक्ति को आमजन अपने हाथों में लेकर ही राज्य सत्ता का फैसला करेंगे। इससे भविष्य के भयग्रस्त और हिंसात्मक समाज की आहट को तो सुना ही जा सकता है। देखना यह है कि सत्ताधारियों को यह आहट कब सुनाई देती है?


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