कल दोपहर 3 बजे के आसपास एक फोन हमारे मोबाइल पर आया। किसी ऐसे व्यक्ति का फोन था जिसका नम्बर हमारे मोबाइल में नहीं था। नम्बर भी कुछ जाना पहचाना नहीं लगा।
फोन आया, स्क्रीन पर एक नम्बर उभरा। उस कॉल को रिसीव किया। (अब आप लोग थोड़ा सा उसी रूप में वार्तालाप को पढ़ें, जैसी कि हुई।)
हमने कहा-हाँ जी।
उधर से-कुमारेन्द्र सिंह सेंगर बोल रहे हैं?
हम-हाँ जी, बोल रहे हैं।
उधर से-अच्छा, अभी भी चिन्टू के नाम से पुकारे जाते हो? (चिन्टू हमारे घर में बुलाया जाने वाला नाम है, इसी नाम से कॉलेज के दौरान हमारे मित्रों और अध्यापकों ने भी हमें बुलाना शुरू कर दिया था। शायद कुमारेन्द्र से आसान होने के कारण)
हम-हाँ।
उधर से-अबे! कब तक अपने को चिन्टू कहलवाते रहोगे?
हम-आखिर-आखिर तक।
उधर से-अच्छा, अब तो तुम डॉक्टर हो गये हो?
हम-हाँ।
उधर से-किसके?
हम-किताबों के।
उधर से-हाँ बे, सही है। स्टैटिक्स पढ़कर तो किताबों के ही डॉक्टर बनोगे। बायो ली होती तो इंसानों के बनते।
(वार्तालाप बहुत लम्बा चला। आपको ज्यादा नहीं)
और भी बातें हुईं। उधर से हमारे बारे में जानकारी ली जाती रही और बीच-बीच में मित्रों के बीच में प्यार-मुहब्बत में चलने वाली गालियों का दौर भी चलता रहा। उसने अपना नाम नहीं बताया और हमने भी नहीं पूछा। इसका कारण यह था कि उसके चिन्टू कहते ही हमें एकदम आभास हुआ कि हमारा बहुत पुराना दोस्त आलोकनाथ बोल रहा है। अपने ऊपर पूरी आश्वस्ति होने के बाद भी सामने वाले के सामने खुद को गलत साबित न होने देने के कारण से उसका नाम लेकर कुछ भी नहीं कहा।
बीच-बीच में हँसी के दौर भी होते, गालियों के, साथ में पढ़ने वाली लड़कियों का नाम लेकर छेड़ने का पल भी आया कुल मिला कर बातचीत में उसने नाम नहीं बताया पर हमें पक्का यकीन हो गया था कि यह आलोकनाथ ही है।
थोड़ी देर के बाद (लगभग 10 मिनट की बातचीत के बाद) उसने कहा, क्यों बे, इतनी देर हो गई, न तो पूछा कि कौन बोल रहे हो और न ही जानने की इच्छा की। तब हमने कहा कि यदि गलत नहीं हैं तो तुम आलोकनाथ हो।
उधर से आश्चर्य भरी प्रतिक्रिया हुई, अबे चिन्टू तुम्हारी इसी अदा पर मर गये। यदि बगल वाले को बता दें कि तुमने क्या कहा तो वह उछल पड़ेगा। (आलोकनाथ के बगल वाला भी हमारे साथ पढ़ा हुआ हमारा मित्र राजेश भाटिया था, जिससे हमारा सम्पर्क फेसबुक पर मात्र आठ दिनों पहले हुआ था।)
आलोकनाथ के यह जताते ही कि वह आलोकनाथ ही है हमारे आँसू बहने लगे। आँखें नम और जुबान तो मानो आगे कुछ भी कहने को तैयार नहीं। उधर से आलोकनाथ आश्चर्य में कुछ न कुछ बोले जा रहा था और हमारे साथ के कुछ और मित्रों के बारे में बताता जा रहा था, इधर हम खुद को सँभालने में लगे थे।
आलोक से लगभग 15 साल के बाद बातचीत हो रही थी। हम स्नातक की पढाई के दौरान एक साथ होस्टल में रहा करते थे। राजेश भाटिया ने भी इतने वर्षों के बाद हमें फेसबुक के द्वारा खोज लिया था। इंटरनेट की सुविधा का लाभ लेने के बाद लगभग रोज ही अपने पुराने मित्रों को ऑरकुट अथवा फेसबुक पर खोजने का काम करते रहते हैं। कुछ से मुलाकात हुई और कुछ इसी तरह से टकरा गये। आलोकनाथ को फेसबुक अथवा आफरकुट पर न पाकर लगता था कि अब उससे दोबारा मुलाकात नहीं हो पायेगी।
बहरहाल आलोक मिल गया, राजेश भी मिला कुछ और साथियों के बारे में इन्हीं से पता चला। अब लगता है कि तकनीकी सुविधा से समूचे विश्व का एक विश्वग्राम के रूप में स्थापित हो जाना गलत नहीं है। इसके अलावा यह भी गलत नहीं है कि दुनिया गोल है किसी न किसी दिन फिर मिलना हो ही जाता है।
किसी के लिए सही हो अथवा नहीं पर हमारे लिए तो ये दोनों बातें सही ही साबित हुईं हैं।
बिछुड़े मित्रों से संवाद होने की प्रसन्नता मुक्तभोगी ही अनुभव कर सकता है ...बधाई
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बधाई हो आपको, आपको इंटरनेट सुभ रहा. मित्र से पुनर्मिलन की बधाई.
जवाब देंहटाएंराकेश kumar
बधाई हो आपको, आपको इंटरनेट सुभ रहा. मित्र से पुनर्मिलन की बधाई.
जवाब देंहटाएंराकेश kumar
कितना आनन्द आ जाता है जब ऐसी घटना घटती है. अभी पिछले हफ्ते ही अपने २५ साल पहले बिछड़े मित्र से मुलाकात हुई कुछ इसी तरह.
जवाब देंहटाएंबिछुड़ों से मिलन एक न एक दिन होता है
जवाब देंहटाएंइसी आशा में हम भी एक बचपन के मित्र को ढुंढ रहे है। कभी न कभी तो फ़िर मिलेंगे
अच्छी पोस्ट
आभार
जय बुंदेलखंड
जय छत्तीसगढ
जय हिंद
मैं परेशान हूँ--बोलो, बोलो, कौन है वो--
टर्निंग पॉइंट--ब्लाग4वार्ता पर आपकी पोस्ट
उपन्यास लेखन और केश कर्तन साथ-साथ-
मिलिए एक उपन्यासकार से
इंटरनेट ने दूरियों का दुख बहुत न्यून कर दिया है...
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