बसपा की राष्ट्रीय महारैली का आयोजन किया गया था। भव्य स्वरूप में बसपा के गठन की 25वाँ वर्ष मनाया गया साथ ही मान्यवर कांशीराम के जन्मदिन के मनाने की औपचारिकता भी पूरी कर ली गई। यह अपने में कितना हास्यास्पद लगता है कि जिस व्यक्ति ने दलित हित में कार्य करने की ठानने के बाद शपथ ली थी कि वह अब कभी किसी समारोह, उत्सव, शादी कार्यक्रमों आदि में सम्मिलित नहीं होंगे, उसके जीते जी ही उस व्यक्ति का जन्मदिन मनाने का चलन शुरू कर दिया गया था।
हमारा ज्ञान भी कांशीराम के प्रति उतना ही है जितना कि अखबारों में, कुछ लेखों आदि के माध्यम से प्राप्त हुआ है। इसके अलावा कुछ जानकारी हमें उनके अभिन्न रह डॉ0 रामाधीन से प्राप्त हुई है जो लगभग 17 वर्षों तक कांशीराम के साथ-साथ रहे। सन् 1978 में बामसेफ का गठन होने के बाद से लेकर अपनी मृत्युपर्यन्त कांशीराम ने दलित हित में ही कार्य किये।
यह सुन कर सभी को आश्चर्य होगा कि जीवन भर दलितों के लिए आरक्षण की माँग को सही ठहराने वाले कांशीराम ने कभी भी अपना जाति प्रमाण-पत्र नहीं बनवाया था। इसके अलावा यह तो सभी को ज्ञात है कि वे लगभग 8 बार लोकसभा चुनावों में उम्मीदवार के रूप में अपनी किस्मत आजमाते रहे किन्तु सिर्फ एक बार ही विजयश्री उनको मिली। देश के विभिन्न भागों से चुनाव लड़ने वाले कांशीराम को उनके घनिष्ट सहयोगी किसी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ने की सलाह देते तो वे हँस कर कहते कि तुम लोग मुझे चमार बनाने का मन बनाये हो। यह बात भले ही सुनने में छोटी सी लगे किन्तु इसके पीछे बहुत गम्भीर विषय छिपा है।
कांशीराम इस बात को समझते थे कि वे स्वयं तो संघर्ष कर स्वयं को समाज में प्रतिस्थापित कर लेंगे किन्तु समाज का वास्तविक दलित वर्ग बिना आरक्षण के स्वयं को आगे नहीं ला पायेगा। इसके बाद भी उनके द्वारा संसद में, विधानसभाओं में, विभिन्न उच्च पदों पर पहुँचे इस वर्ग के लोगों ने अपने ही लोगों को ऊपर लाने में सहयोग नहीं किया। इस तरह की स्थिति को देखकर डॉ0 भीमराव अम्बेडकर भी चिन्तित रहते थे। डॉ0 अम्बेडकर ने तो आरक्षण के बाद भी दलितों की दशा में सुधार न होने का जिम्मेवार उच्च पदों पर बैठे दलितों को बताते हुए आरक्षण को समाप्त करने तक की माँग कर डाली थी।
बहरहाल कुछ भी हो दलितों के लिए संघर्ष करने वाला सच्चा व्यक्ति अब इस दुनिया में नहीं रहा और उसके नाम पर राजनीति उसी तरह हो रही है जैसी कि शेष पार्टियों में की जा रही है। किसी भी दल के लिए कोई भी आदर्श व्यक्तित्व केवल वोट बैंक की राजनीति तक के लिए ही है, ठीक इसी तरह का कार्य यहाँ भी हो रहा है। दलितों के हितों के लिए प्रारम्भ किये गये इस दल में अब सर्वजन की चर्चा होने लगी है। यहाँ भी दलित वोट बैंक के द्वारा सवर्णों के लिए सत्ता के द्वार खोले जा रहे हैं। नोटों के द्वारा वोटों की राजनीति में दलित समाज का कितना भला होगा ये अब एक शोध का विषय है।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
हमारा ज्ञान भी कांशीराम के प्रति उतना ही है जितना कि अखबारों में, कुछ लेखों आदि के माध्यम से प्राप्त हुआ है। इसके अलावा कुछ जानकारी हमें उनके अभिन्न रह डॉ0 रामाधीन से प्राप्त हुई है जो लगभग 17 वर्षों तक कांशीराम के साथ-साथ रहे। सन् 1978 में बामसेफ का गठन होने के बाद से लेकर अपनी मृत्युपर्यन्त कांशीराम ने दलित हित में ही कार्य किये।
यह सुन कर सभी को आश्चर्य होगा कि जीवन भर दलितों के लिए आरक्षण की माँग को सही ठहराने वाले कांशीराम ने कभी भी अपना जाति प्रमाण-पत्र नहीं बनवाया था। इसके अलावा यह तो सभी को ज्ञात है कि वे लगभग 8 बार लोकसभा चुनावों में उम्मीदवार के रूप में अपनी किस्मत आजमाते रहे किन्तु सिर्फ एक बार ही विजयश्री उनको मिली। देश के विभिन्न भागों से चुनाव लड़ने वाले कांशीराम को उनके घनिष्ट सहयोगी किसी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ने की सलाह देते तो वे हँस कर कहते कि तुम लोग मुझे चमार बनाने का मन बनाये हो। यह बात भले ही सुनने में छोटी सी लगे किन्तु इसके पीछे बहुत गम्भीर विषय छिपा है।
कांशीराम इस बात को समझते थे कि वे स्वयं तो संघर्ष कर स्वयं को समाज में प्रतिस्थापित कर लेंगे किन्तु समाज का वास्तविक दलित वर्ग बिना आरक्षण के स्वयं को आगे नहीं ला पायेगा। इसके बाद भी उनके द्वारा संसद में, विधानसभाओं में, विभिन्न उच्च पदों पर पहुँचे इस वर्ग के लोगों ने अपने ही लोगों को ऊपर लाने में सहयोग नहीं किया। इस तरह की स्थिति को देखकर डॉ0 भीमराव अम्बेडकर भी चिन्तित रहते थे। डॉ0 अम्बेडकर ने तो आरक्षण के बाद भी दलितों की दशा में सुधार न होने का जिम्मेवार उच्च पदों पर बैठे दलितों को बताते हुए आरक्षण को समाप्त करने तक की माँग कर डाली थी।
बहरहाल कुछ भी हो दलितों के लिए संघर्ष करने वाला सच्चा व्यक्ति अब इस दुनिया में नहीं रहा और उसके नाम पर राजनीति उसी तरह हो रही है जैसी कि शेष पार्टियों में की जा रही है। किसी भी दल के लिए कोई भी आदर्श व्यक्तित्व केवल वोट बैंक की राजनीति तक के लिए ही है, ठीक इसी तरह का कार्य यहाँ भी हो रहा है। दलितों के हितों के लिए प्रारम्भ किये गये इस दल में अब सर्वजन की चर्चा होने लगी है। यहाँ भी दलित वोट बैंक के द्वारा सवर्णों के लिए सत्ता के द्वार खोले जा रहे हैं। नोटों के द्वारा वोटों की राजनीति में दलित समाज का कितना भला होगा ये अब एक शोध का विषय है।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
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