मौसम उसी तरह गर्म था जैसे कि आम तौर पर गर्मियों में होता है। लोगों के चेहरों पर थकान स्पष्ट रूप से देखने को मिल रही थी। सूरज जितनी तेजी हो सकती थी उतनी तीव्रता से अपनी आग को धरती पर भेजे दे रहा था। आदमी गर्मी से परेशान, भगवान को कोसता, मानव की अनियंत्रित गतिविधियों को गाली देता हुआ अपने कार्यों को अंजाम देने में लगा था।
कमरे में न तो कूलर था और छत पर टंगा पंखा भी बस चल रहा था, हवा तो खिड़कियों और दरवाजों से छनकर आ रही थी वही महसूस हो रही थी। लोगों की भीड़ बता रही थी कि लोगों को गर्मी में भी चैन नसीब नहीं है। यहाँ आना इन लोगों की शायद मजबूरी रही होगी नहीं तो दोपहर के बारह-एक गजे कौन परेशान होता है सरकारी चिकित्सालय में?
कमरा वैसे किसी डाक्टर का नहीं था। यहाँ मरीज के खून का नमूना लेकर उसकी जाँच की जाती थी। खून का नमूना देने वालों की भीड़ ही बता रही थी कि बीमारी किस कदर लोगों को परेशान किये है। सभी अपने-अपने तरीके से गर्मी से बचने का प्रयास कर रहे थे।
गर्माहट भरे और उन सरकारी कर्मचारियों के लिए झल्लाहट भरे क्षणों में दो वृद्धजनों के धीरे-धीरे से आने ने हमारा ध्यान उस और खींचा। एक स्त्री, एक पुरुष कदाचित् पति-पत्नी ही होंगे (उस समय अनुमान लगाया जो बाद में सही निकला) पति-पत्नी ही थे। दोनों की उम्र साठ के ऊपर जा चुकी थी और वृद्धावस्था अपना असर पूरी तरह से दिखा रही थी।
इस विषम सी स्थिति में भी बूढ़ी औरत अपने बीमार पति को किसी तरह सहारा देते उस कमरे तक ले आई थी। उस पुरुष की हालत देखकर लग रहा था कि वह काफी दिनों से बीमार चल रहा होगा और अब हालत जब बेकाबू लगी होगी तो इस सरकारी चिकित्सालय की ओर अपना रुख किया होगा।
हमें विशेष यह नहीं लगा कि दोनों वृद्ध अपने आपको किस तरह यहाँ एक दूसरे को सहारा देते हुए लाये होंगे वरन् जिस बात ने हमें चकित किया वह यह थी कि वह स्त्री बड़े ही मातृत्व भाव से उस पुरुष की देखभाल कर रही थी। कमरे में होने के बाद भी वह वृद्ध पुरुष के सिर को लगातार कपड़े से ढाँकती जाती थी, बीच-बीच में बड़े ही दुलार के साथ उसके सिर पर हाथ भी फिरा देती। पुरुष उस समय बड़े ही निरीह भाव से उसको देख लेता और बीच-बीच में अपनी आँखों की नमी को पोंछ भी लेता।
उस महिला का थोड़ी-थोड़ी देर में पानी ले आना, कभी साथ में लिये छोटे से पंखे से हवा करने लगना, कभी बातों के द्वारा उस व्यक्ति को सांत्वना देना और उस व्यक्ति के द्वारा भी बीच-बीच में पानी की बोतल से (जिसमें रखा पानी निश्चय ही गर्म हो चुका होगा) पानी निकाल कर उस महिला को देना, उसके हाथ से पंखा लेकर उसको हवा करने से रोकना, अपनी स्थिति को लेकर उस महिला को भी हिम्मत बँधाना बतला रहा था कि दोनों में किस कदर प्रेम-स्नेह है।
उन दोनों के आपसी क्रियाकलापों में वहाँ उपस्थित भीड़ से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। महिला बीच-बीच में अपने नम्बर के बारे में भी पूछ लेती। हम भी खाली बैठे थे बिन बुलाये दोनों के बीच में घुस गये तो मालूम हुआ कि दोनों का विवाह लगभग दस-बारह वर्ष की उम्र में हो गया था। इतना लम्बा साथ और सिर्फ एक बार दोनों में लड़ाई का होना बताता है कि संस्कार किस हद तक गहराई तक समाये हैं।
अपनी कहानी बताने में वृद्ध के चेहरे पर चमक आ गई तो महिला में नवयुवतियों जैसी शर्माहट आ गई। दोनों की बातों ने एक नया सबक सिखाया और लगा कि आज हम संयुक्त से एकल परिवारों में बँटे और अब एकल परिवारों को भी तोड़ने में लग गये हैं। शादी होने के चंद दिनों बाद ही लड़ाई-झगड़ा शुरू हो जाता है, तलाक तक होने लगता है। क्या और कैसा समाज खड़ा कर रहे हैं हम?
चुनावी चकल्लस-जीतते-जीतते हार गये, सदमा लगा,
हारते-हारते जीत गये, आनन्द छा गया,
पद-लोलुपता में हुआ गठबंधन दोनों में,
जनता को किसी से भी कुछ न मिला।
01 मई 2009
परिवार कहाँ जायेंगे, रिश्ते कहाँ जायेंगे?
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रिश्तों की वो गर्माहट, समर्पण, सहनशीलता निश्चित ही कहीं कम हो गई है.
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